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________________ ...और देखता हूँ कि एक जीर्ण हवेली के, किसी एकान्त कक्ष में उपस्थित हूँ। सारे कमरे में एक ध्वंस की मौन छाया फैली है। मीना-खचित दीवारों पर धूल जमी है, वे तड़क गई हैं। छत की मध्यवर्ती विशाल झूमर दीपकहीन और म्लान टॅगी है। एक मर्मर के भग्न दीपाधार पर साधारण तैल-दीप जल रहा है। उसकी मद्धिम रोशनी में दिखाई पड़ा : कोने के टूटे पलंग पर एक तन्वंगी रोगिणी लेटी है। क्षयी चांद की अन्तिम कला की तरह पाण्डुर । उसके सिरहाने उसका पति सिर झुकाये चुप बैठा है। उसकी आँखें एकटक रोगिणी की आँखों में लगी हैं। एकाएक विह्वल हो कर उसने अपना माथा रोगिणी की छाती पर ढाल देना चाहा। 'नहीं"नहीं स्वामी, नहीं !' 'उत्पला, और मैं कहाँ जाऊँ ?' 'वह अब कहाँ ? मैं अब कहाँ ?...' 'यहीं हो न, मेरी बाँहों में ?' ' 'नहीं, उनसे बाहर हूँ। सारे जगत से बाहर हूँ। एकदम अकेली हूँ !' 'चुप-चुप, चुप करो उत्पला, मुझे शरण दो इस छाती में।...' 'जो छाती ही क्षण भर बाद रहने वाली नहीं है, उसमें शरण खोज रहे रहो, सागर?' रोगिणी की आवाज़ आँसुओं में डूब गई। 'वह छाती नहीं रहेगी, जिसके लिये मैंने सारे जगत से मुंह मोड़ लिया? ""याद करो उत्पला, वह पहला दिन। उज्जयिनी में उस दिन अपने द्वार-पौर में तुम चौखट पर सर ढाले खड़ी-थीं। तब तुम्हारे आँचल और कंचुकी से झांकती जो वक्ष-कोर देखी थी, क्या वह नहीं रहेगी? ऐसा हो नहीं सकता। उस कोर तले जो उभार और गहराव छुपा देखा था, उसमें सर ढालने को मैं उस क्षण पागल हो गया था। लगा था, इस छाती को प्राप्त किये बिना जिया नहीं जा सकता।" 'व्यवसाय के लिये उज्जयिनी आया था, वह भूल गया। मां-बाप की सुधबुध खो गई। पास का सहस्रों सुवर्ण द्रव्य उज्जयिनी की गलियों में बह गया। बरस पर बरस बीतते चले, पर तुम्हारी चितवन मेरी ओर न उठी। मैं तुम्हारा हृदय न जीत पाया। "लेकिन जब पहली ही बार तुम्हारी निगाह मेरी ओर उठी, तो लौट न सकी। तुम मानो उसी दिन अपने पिता के वैभव-महल की सीढ़ियाँ उतर गईं। "निपट एक-वस्त्रा करके तुम्हारे पिता ने तुम्हें निकाल बाहर किया। और तुम मेरे पीछे चली आई। हमने गान्धर्व विवाह किया। और पहली रात जब तुम्हारी उस वक्ष-कोर पर सर ढाला तो लगा-कि हाय, परम शरणाधाम है यह छाती । मेरा एक मात्र अभीष्ट मोक्ष। "उस मोक्ष में ही तो इस क्षण तक जीता रहा हूँ, उत्पला! Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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