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________________ ३१२ क्या वह मैं हो सकी, या मैं वह हो सका? .. अन्तिम बिछोह के तट पर, कितने विवश अपने में बन्द, मूक, हम एक-दूसरे को ताकते रह गये! तलछट तक एक-दूसरे को जानकर भी, कैसे घोर अज्ञान के पहचानहीन अँधियारे समुद्र में हम छूट गये। तूफ़ानी लहरों में डूबते मस्तूलों-से हम एक-दूसरे की नज़रों से ओझल होते चले गये।... श्रेणिक भी एक और निमित्त बना, अपनी पहचान के संघर्ष का। मगध में मेरे यों निश्चल खड़े रहते, उसे अपने अस्तित्व के अहम् को टिकाये रखना अशक्य हो गया। और मैं मनुष्य के उस चरम अहम् से जूझे बिना अपने आत्म के ध्रुव पर कैसे आरूढ़ हो सकता था। मानो कि श्रेणिक मेरी कसौटी था। मानो कि वह मेरी सत्ता के माप का मेरुदण्ड था। और उस पर अपने अनन्त को सिद्ध किये बिना मैं जैसे अपनी आत्मा का चेहरा अनवगुण्ठित नहीं कर सकता था। मानो कि श्रेणिक से निवृत्त हुए बिना, उसे उद्बोधे और उबारे बिना, जैसे मैं स्वयम् आप नहीं हो सकता था। मो अन्त तक उसे सम्बोधन किया, सब को सम्बोधन किया। "और अचानक पाया कि संवाद-सम्प्रेषण की खिड़कियाँ धड़ाम से एकाएक बन्द हो गयी हैं। हम सब अपने-अपने में लौट गये हैं। एक आदिम अन्धकार के समुद्र में कीलित, दूर-दूर पर छिटके अनेक द्वीप, जो अपने ही भीतर की ख़न्दकों में अवरुद्ध हैं। जगत, जीवन, वस्तु, व्यक्ति, सब के साथ अब तक जिस चेतना-स्तर पर सम्प्रेषण और सम्वाद सम्भव था, वह अब पीछे छूट गया है। वहाँ लौटना अब सम्भव नहीं। वहाँ गत्यवरोध और कुण्ठां की आखिरी चट्टान सामने आ गई, तभी तो वहाँ से उच्चाटित और उत्क्रान्त हो जाना पड़ा। अब इस एकलता के सीमाहीन शून्य में, किसी नये क्षितिज की कोर देखने को प्रतिक्षण छटपटा रहा हूँ। अपनी पिछली पहचान हाथ से निकल चुकी है। और अगली पहचान अब मैं नहीं खोज रहा। क्या कोई एकमेव और अविकल पहचान मेरी नहीं? वह जब तक हाथ में न आ जाये, तब तक कैसे जान सकता हूँ, कि 'मैं कौन हूँ?' और जब तक अपने ही को अन्तिम परिप्रेक्ष्य में न जान लूं, तब तक औरों को अन्तिम रूप से जान लेने का दावा कैसे कर सकता हूँ। .''जहाँ आज खिड़कियाँ बन्द हो गई हैं, क्या उससे आगे वस्तुओं और व्यक्तियों पर कोई ऐसा सम्पूर्ण मण्डलाकार वातायन नहीं खुल सकता, कि जिसके तट पर मैं उनके भीतर अबाध संक्रमण और अतिक्रमण करूँ, और वे मेरे भीतर बेरोक और अनाहत भाव से आलिंगित होते चले आयें। '.."मैं हूँ, और वे हैं। मैं कौन हूँ, वे कौन हैं ? उनसे मेरा क्या सम्बन्ध है ? उन्हें मैं कैसे पूर्ण जानूं, पूर्ण प्राप्त कर लूं? कैसे उनसे अनिवार तदाकार हो रहूँ? कैसे मैं वे हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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