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. . 'अब तुम्हीं बताओ, चेलना, तुम्हें और श्रेणिक को, कहाँ कैसे अलग से देखता? तन्तुवाय-शाला के कर्षों में इसलिये अपने को बुने जाने को छोड़ दिया, कि मगधनाथ के साम्राज्य-स्वप्न को उनकी कम्म-शालाओं में कल्पवृक्ष की तरह आरोपित कर दूं। बार-बार लगा कि वर्द्धमान, चेलना और श्रेणिक के हर मनोकाम्य को अचूक सम्पूरित करने को ही मानो लौट-लौट कर बाम्बार मगध की भूमि में भटक पड़ा है।
मगध की महारानियों के आँसू भीने आँचलों में ढलकने से अपने को कहाँ बचा पाया हूँ ? .पर उससे पहले उनके आँसुओं में ही जो उफना हूँ, सो काश वे और तुम जान सकतीं! तुम्हारे राजद्वारों पर आवाहन के मंगल-कलश अनुतरित ही रह गये। तुम्हारी अनवरत प्रतीक्षाओं को पीठ देकर मैं अन्यत्र ही विचरता रहा । तुम और श्रेणिक निर्जन शून्य बेलाओं में मेरे समीप घंटों बैठे रह गये, मेरी एक सन्मुख दृष्टि पाने को विकल । पर मैंने आँख उठा कर भी तुम्हें नहीं देखा, नहीं स्वीकारा।
.. पर मेरी विचित्र विवशता रही, चेलना, कैसे तुम्हें समझाऊँ । जब-जब भी तुम दोनों मेरे समीप आ कर उपविष्ट हुए, मैं तत्काल अन्तर्मुख हो गहन ध्यान में चला गया। मानों कि तुम्हें बाहर नहीं, अपनी आत्मा में ही अविकल देखा जा सकता था। और तुम्हें समूचा देखे बिना मैं रह नहीं सकता था। मानों कि तुम दोनों को देखना, अपनी ही आत्मा को साक्षात् देखना था। और वह बाहर से आँख मूंद, अन्तर्मुख हुए बिना कैसे सम्भव था। तुम्हें आत्मा के अन्तःपुर में ले कर ही तो तुम्हारे साथ मिलन और सम्वाद सम्भव था। अपनी ओर से वह सुख मैंने पाया। पर मेरा वह सम्वाद तुम दोनों तक सम्प्रेषित न हो सका, तो वह मेरी ही कमी रही , मेरी ही अपूर्णता रही। उस पूर्णता-लाभ के लिये ही तो तुम्हारा प्यार, मुझे बारम्बार तुम्हारी लोचभरी माटियों के गहरावों में खींच लाया है. चेलना । ऋजबालिका की ये लहरें साक्षी हैं, कि इनके तट पर कूटस्थ हो कर आज मैं क्या पाने को अटल, अनिर्वार, सन्नद्ध खड़ा हूँ।
__ तुम्हारे साम्राजी राजद्वारों में तुम्हारे भीतर कितनी दूर आ सकता था ? तुम्हारे क्षीरान्न मात्र से वह भिक्षुक कैसे तृप्त हो सकता था, जो तुम्हारे सर्वस्व का याचक और भोजक है। तुम दोनों को सम्पूर्ण पाये और अपनाये बिना, मानों क्षपक श्रेणि पर आरूढ़ नहीं हुआ जा सकता । अपनी उस सीमा का अतिक्रमण करना होगा, जिसके रहते हमारे बीच असमझ, अज्ञान और ग़लतफ़हमी की अँधेरी खन्दक पड़ी हैं। तुम्हारे साथ सम्पर्क होते ही, तुम्हें सम्पूर्ण देखने और पाने को बरबस ध्यानलीन होते हुए भी, अपनी आत्मलौ में प्राण की एकाग्र ऊर्जा से तुम्हें खींच कर भी, तुम से एकतान न हो सका।
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