SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४ चन्दना और चेलना को, 'महावन उद्यान' में वसन्त-क्रीड़ा करते देख लिया । कुछ समय में ही उसने चारों राजकुमारियों का एक भव्य चित्र आँका, और अपना चित्रपट ले कर वह वैशालीपति महाराज चेटक के राजद्वार पर आ उपस्थित हुआ । 'हमारे उदात्तमना, निर्मल हृदय, सम्यक् - दृष्टि बापू ने उस रूपदक्ष का स्वागत किया । हृदय से उसका सम्मान किया । उसके चित्रपट देख कर वे उसके कला-कौशल पर मुग्ध विभोर हो गये । हम लोगों को बुलवा कर चित्रकार से हमारा परिचय कराया गया। याद आता है, जब हम चारों सम्मुख हुई, तो केवल एक बार आँखें उठा कर भरत ने सहज शीलपूर्वक हमारा अभिवादन किया था । उसके बाद वह मौन-मुग्ध मात्र नमित नयनों से ही जैसे हमारे पदनखों को देखता रहा । आँख उठा कर दुबारा उसने हमारी ओर नहीं देखा । पर प्रथम साक्षात्कार की उसकी वह उज्ज्वल दृष्टि आज तक मैं भूल नहीं सकी हूँ। अलख सौन्दर्य का वह चितेरा, अपनी भावभंगिमा कुछ ऐसा लगा, मानो कि स्वर्ग से च्युत हो कर कोई देवकुमार पृथ्वी पर भटक रहा है । उस दिन के बाद फिर भरत से मेरा कभी आमना-सामना नहीं हुआ । बस, एक झलक भर ही तो उसने मुझे देखा था, पर ऐसा लगा था, जैसे कोई बिजली की-सी तूली मेरे रेशे - रेशे में जाने कितने रंग बहा गई हो । बापू ने बड़े गौरव के साथ हम चारों बहनों का वह चित्रफलक राज-द्वार के कक्ष - गवाक्ष पर टेंगवा दिया था। सारी वैशाली उसे देखने को उमड़ी थी। और भरत के चित्र-कौशल की कीर्ति सौरभ बन कर लक्षलक्ष हृदयों में व्याप गई थी । यह भी सुनने में आया था कि भरत ने देवी आम्रपाली को केवल एक सन्ध्या में, उनके गवाक्ष पर पूनम के चन्द्रमण्डल- सी उदीयमान देखा था । और उसी एक दर्शन के आधार पर उसने, उनके एकान्त बन्द कक्ष की, ऐसी गोपन शैयागत मुद्रा में उन्हें अंकित किया था, जो किसी महायोगिनी की तल्लीन समाधि से कम नहीं लगती थी । देवी के पास जब वह चित्रपट पहुँचा, तो वे स्तम्भित रह गई । अपना सब से प्रिय हीरक-हार उन्होंने पुरस्कार-स्वरूप भरत को भेजा । भरत ने यह कह कर वह लौटा दिया कि : 'देवी की दृष्टि ने मुझे पहचाना, तो मेरा चित्रांकन कृतकाम हो गया । हीरक-हार से उस दृष्टि को बाधित करूँ, ऐसा अभागा मैं नहीं । 'और प्रवासी के पास उसे रखने की जगह भी कहाँ है ? ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy