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________________ २३७ रहते थे। वैभार की उपत्यका के दुर्दान्त हिंस्र कान्तार में अकारण ही घुसते चले जाना, तुम्हारा मामूली क्रीड़ा-कौतूहल था। पर चेलना की राजगृही की ओर देखना, तुम्हें किसी भी तरह गवारा न हो सका। संकल्प तो तुम में था ही नहीं, फिर कैसे कहूँ कि तुम हठपूर्वक हमारी अवज्ञा कर रहे थे। विकल्प और विद्वेष के राज्य से उत्तीर्ण हो कर ही मानो तुम जन्मे थे। सोचती थी, जो अपने प्राणहारी शत्रु की भी अवहेलना नहीं करता, खुद होकर उसके पास जाता है और उसे गले से लगा लेता है, वह हमारी अवज्ञा करे, इतना छोटा वह कैसे हो सकता है। ___तुम्हें समझने में चेलना भूल नहीं कर सकती, महावीर ! फिर भी अबूझ है यह रहस्य कि सारे लोक को अपनी बाँहों में समेट कर भी, तुम मुझे पीठ दे कर क्यों निकल गये हो ? · · ·पर चोट जिस मर्म पर तुमने दी है, उसी ने समझा दिया है, कि मैं तुम्हारी कौन होती हैं। मौसी नहीं, मगध की राजेश्वरी नहीं, सौन्दर्य की मानकेश्वरी नहीं। • केवल एकमेव चेलना, सब से अलग, केवल तुम्हारी । इतनी तुम्हारी, कि अलग से उसे लक्ष्य करना सम्भव ही नहीं, अतः आवश्यक भी नहीं । सो जितनी ही अधिक दूर ठेल रहे हो, उतनी ही अधिक तुम्हारे निकट आ रही हूँ। पर सम्राट का समाधान कैसे हो? तुम तो उन्हें सदा से बेहद प्यार करते रहे हो । दूर से ही तुम उनके दिल की हर हरकत को पढ़ते रहे हो । कपट की कुंचना तो उनमें कहीं है ही नहीं । फिर यह क्या हो गया है तुम्हें, कि तुमने प्रथम मिलन में ही उन्हें उठा कर दूर फेंक दिया? उन्हें स्वीकारने से तुमने इनकार कर दिया। उनके मान को तुम ठुकरा सकते थे, पर उनके प्रणाम को भी तुमने ठुकरा दिया । कहीं ऐसा तो नहीं है, कि वैशाली का राजपुत्र श्रमण, वैशाली के आक्रमणकारी और शत्रु को भूल नहीं सका है ? ... तो जानो लिच्छवि-पुत्र वर्द्धमान, मैं केवल वैशाली की बेटी नहीं, मगध की सम्राज्ञी भी हूँ। मेरे हृदय-सम्राट का अपमान मेरा अपमान है। यह नहीं हो सकता कि तुम चेलना को उनसे छीन लो । यह नहीं हो सकता, कि तुम चेलना को ले लो, और उन्हें टाल कर अकेला कर दो । यह नहीं हो सकता, कि वैशाली की विजय के लिए वैशाली का तीर्थकर राजपुत्र अपने अजितवीर्य के प्रताप से मगध को रौंद जाये। · · 'हाय, बलिहारी है मेरी दुर्बुद्धि की। चण्डकौशिक महासर्प की डाढ़ में अपना हृदय दे देने वाले महावीर पर ऐसी शंका करना क्या असत्य, अज्ञान और अन्याय की पराकाष्ठा ही नहीं है ? यह भी कैसे कहूँ कि तुम्हारे प्यार में इनके और मेरे बीच अन्तर हो सकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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