________________
२३५
स्वीकारने की हठ से इनकी मुख-मद्रा इतनी अभेद्य और पथराई लगी, कि मेरी पुतलियां भी इनकी ओर देखते-देखते मानो पथरा कर रह गई। मेरी चितवन को देख कर ये विगलित न हो जायें, ऐसा पहली बार हुआ था। मौन-मौन ही हम महल लौट आये।
उस दिन नालन्द से लौट कर फिर ये मेरे कक्ष में नहीं आये। इनकी अनमनस्कता को मैं एक क्षण भी नहीं सह सकती। पर इनके पास स्वयप जाने की हिम्मत भी नहीं हुई। मुझसे अधिक इनको कौन समझेगा, सिवाय तुम्हारे, मान ! इनकी रग-रग को अपने रेशे-रेशे में महसूस करती हूँ। जो काँटा इनके जी में गहरा गड़ गया था, उसकी चुभन को अपने हृदय में अचूक अनुभव कर रही थी। अपराजेय मगधेश्वर को, इतना पराजित, म्लान और सर्वहारा तो कभी नहीं देखा था। लगता था कि अपने पलंग पर एक परवश नन्हें शिशु की तरह सोये पड़े हैं। · · उसे जगाना, तो प्रलय को जगाना है। और उस प्रलय की निष्फलता पर मेरा मन अपार करुणा से भर आया।
__.. सोची, ऐसी स्थिति में, कितनी मुश्किल से इन्हें उठा कर फिर दुबारा तुम्हारे पास ले आयी थी। रास्ते में मेरे कहे को इन्होंने चुपचाप सुना और गुना था। ___ जब हम आये, तुम तन्तुवायशाला के एक कोने में ध्यानस्थ खड़े थे। समझ नहीं सकी, कि सैकड़ों कर्षों की उस खटखटाहट न, तुम कौन-सा ध्यान कर रहे थे ? ध्यान तो एकान्त नीरव में होता है, ऐसा ही सुनती आई हूँ। पर वहां उपस्थित तुम्हारी मुद्रा देख कर, स्पष्ट अवबोधन हुआ कि तुम्हारे लिए ध्यान निरा अन्तर्मुख एकान्त-सेवन नहीं, वह प्रतिपल का सम्पूर्ण जीवन है। तुम्हारी दृष्टि में लगा, कि वह सारी तन्तुवायशाला तुम्हारे भीतर चल रही है, और तुम अपने में अविचल स्तब्ध हो । गति और स्थिति के सन्तुलन का ऐसा सचोट दर्शन पहली बार हुआ ।
पास पहुँचते ही इन्होंने विनम्र निवेदन किया : 'मगधनाथ श्रेणिक प्रणाम करता है, भगवन् ।'
और ठीक इनके अनुसरण में मेरे मुंह से उच्चरित हुआ : 'वैदेही चेलना प्रणाम करती है, भन्ते ।'
और फिर एक स्वर में ही मानो हम दोनों ने अनुरोध किया : 'मगध के साम्राजी श्रमणागार का आतिथ्य स्वीकारें, भगवन् !'
• • पर न तुम हमारी ओर उन्मुख हुए, न तुमने कोई उत्तर दिया । उत्तर मिला केवल इस रूप में-कि तुमने अपना दाँया हाथ उठा कर, कर्षों पर तेजी से घूम रहे हजारों पंक्तिबद्ध हाथों पर ऊँगली उठा दी ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org