________________
शिव और शक्ति
शैशव के बाद, तुम्हारे वयस्क होने पर, बरसों पहले केवल एक बार उस दिन तुम से मिलना हो सका था, वर्द्धमान । तुम्हारे बिन चाहे कोई तुम से मिल सके, यह तुम्हारी सत्ता को कुबूल नहीं । सो वही एक मिलन मानो प्रथम और अन्तिम हो रहा । उस दिन की तुम्हारी सूरत - सीरत और भावभंगिमा मेरी आत्मा की शाश्वती में चिर काल के लिए शिल्पित होकर रह गयी है । ऐसी है उसकी मोहिनी, कि मोक्ष का सुख भी उसके आगे फीका लगता है । उस दिन मेरी साँसों से अधिक तुम मेरे समीप आये, फिर भी आकाश से भी अधिक अछूते ही बने रहे। ठीक सामने बैठे थे, लेकिन लगता था कि कहीं और हो, और तुम्हारी याद से प्राण पागल हो रहे थे । तुम्हारे विरह की व्याकुलता से मैं दध हुई जा रही थी । बिदा होते समय तुम्हें अपने आलिंगन में सदा के लिए क़ैद कर लेना चाहा था, लेकिन तब तक तुम जा चुके थे, और मेरी बाँहों में छूट गया था केवल अपना ही आँसुओं से भींगा आँचल । और वह भी इस क़दर अग्निल, जीवन्त और तुमलीन हो गया था, कि उसे छूने का साहस न कर सकी थी ।
1
चलती बेर तुमने कहा था : 'एक दिन मुझे राजगृही के चैत्य- काननों में विचरता पाओगी।' सो तो इन बारह बरसों में कई बार देखा ही । लेकिन इससे भी अधिक तुम्हारी अन्तिम बात याद रह गई थी । तुमने कहा था : 'एक दिन तुम्हें लिवा ले जाने को राजगृही आऊँगा, मौसी ! '
सो जब मगध में पहली बार, नालन्दपाड़ा की तन्तुवायशाला के श्रमणागार में तुम्हारे आगमन का उदन्त सुना, तो मैं हर्ष से रो आई थी । स्पष्ट अनुभूति हुई थी कि — मेरा मान मुझे लिवा ले जाने को आ गया है।
सोचा कि जब लिवा ले जाने आये हो, तो तुम स्वयम् ही मेरे द्वार पर आओगे, मैं खुद चल कर क्यों तुम्हारे पास आऊँ ? कैसा विदग्ध मान जाग उठा था मन में ! उसी मान की मधुर तपन में सुध-बुध खो कर, जाने कितने दिन अबोला ले कर, अपने महल के कक्ष में बन्द हो रही थी । सम्राट कितनी ही बार द्वार खटखटा कर चले गये, पर मेरा द्वार नहीं खुल सका था । आकाश, हवा और सूरज भी मेरे उस एकान्त को भंग न कर सकें, इस ख़याल से सारे ही द्वार- वातायन बन्द कर दिये थे ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org