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________________ २१६ अपनी चीख को दबाने की कम चेष्टा नहीं की मैंने । लग रहा था, कि यह चीख यदि पराकाष्ठा पर फूटेगी, तो त्रिलोक के सकल चराचर प्राणी इससे घायल हो पड़ेंगे । पर एक हद के बाद मेरे वश का क्या था। मेरी यह वेदना सृष्टि के असंख्य जीवात्माओं में व्यापे बिना न रह सकी। . . __ शूल निकल कर सामने आ पड़े। दोनों श्रवणों से खून के फव्वारे फूट निकले। • • 'जन्मान्तरों के बाद एक अपूर्व राहत अनुभव हुई । मेरे श्रवणों से फूटते रक्त की धारा में, कई भवान्तरों पूर्व शैयापाल के कानों में मेरे द्वारा ढलवाया गया तप्त सीसे और तांबे का रस, समूचा बाहर बह आया । · · 'निःशल्य हो गये, मित्र, शय्यापाल ? · · ·और अनाद्यन्त इतिहास के ओ जाने कितने शैयापालो, क्या तुम सभी निःशल्य हो सके ? महावीर को क्षमा कर सके तुम ? नहीं जानता । · · पर लगता है, मेरी चेतना जाने कितनी जानीअनजानी जंजीरों और शूलियों से मुक्त हो कर, किसी चरम-परम समाधि में डूबी जा रही है । ... · · देख रहा हूँ, अपने बान्धव उस ग्वाले को। कुछ देर पहले तक वह एक अबूझ बेचैनी से छटपटा रहा था । अब वह अपने आँगन की नीम-छाँव में, बेखटक हो कर गहरी निद्रा में निमज्जित हो गया है। उसे लग रहा है, कि सुख की ऐसी नींद का ज्वार और ख़मार तो उसकी आँखों में पहले कभी नहीं आया था। नींद में ही वह स्वप्नस्थ शिशु की तरह मुस्कुरा आया है। अनागार होकर विहार करते ही, पहले दिन जगत के एक गोपाल का ही तो अपराधी हुआ था । संसार के अनेक विध दुःख-संत्रासों की परिक्रमा करके, बारह वर्ष बाद फिर शायद उसी बिन्दु पर लौटा हूँ, जहाँ से विश्व-यात्रा पर महाप्रस्थान किया था। और फिर से जगत के एक और, शायद अन्तिम गोपाल का अपराध मुझसे हुआ।ऐसे अन्तहीन मौलिक अपराधी को जगत में कौन क्षमा कर सकता है ? । पर इतना इस क्षण ज़रूर लग रहा है, कि मेरे और सब के उस मौलिक अपराध का उन्मोचन, इस मुहूर्त में हुआ है । और हम सब ने एक दूसरे को और अपने आप को क्षमा कर दिया है । प्रतीति हो रही है, अन्ततः यहाँ कोई किसी का अपराधी नहीं, और कोई किसी को क्षमा करने समर्थ में नहीं । हम स्वयम् ही अपने-अपने अपराधी हैं, और केवल हम स्वयम् ही अपने को क्षमा कर सकते हैं । ___ • 'वैशाख की प्रखर मध्याह्न बेला में, वायुवेग से विहार करता हुआ, अपनी ही सन्मुख छाया का, आप ही अतिक्रमण करता हुआ, मगध के सीमान्त में प्रवेश कर गया हूँ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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