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को भी इससे कम ठेस नहीं पहुँची है। इस कोमल हृदया, धर्मात्मा श्राविका ने अपने रत्निम देवालयों में शान्ति के अनुष्ठान आयोजित किये हैं। हर दिन वे कोई रस त्याग करके ही भोजन करती हैं। महाराज शतानीक को हर दिन कोसने में वे कोई कसर नहीं रखती हैं :
'ओ राजेश्वर, धल-माटी से भी निकृष्ट हैं, तुम्हारे ये सत्ता और सम्पदा के ढूह, तुम्हारी ये माणिक-मुक्ता की राशियाँ । काक-बीटों के ढेर हैं तुम्हारे ख़ज़ानों की ये पुश्तैनी, चिर पुराचीन, महामूल्य निधियाँ। मेरा त्रिभुवनपति बेटा वर्द्धमान, पहली बार मेरे आँगन में आया, और तुम्हारी इस उर्वरा धरती का एक अन्न-कण भी उसे रास न आया, उसे न भाया !
कैसे मान कि गंगा-यमुना के कछार जीवन्त और उर्वर हैं। मुझे तुम्हारे गन्ध-शालियों में सड़ते धान्य की गंध आ रही है। तुम्हारे महालय शवालयों से लगते हैं। इस लज्जा और लांछना से कहाँ निस्तार है ? · . .
'हमारी वैभव-लालित सुकुमार काया तो एक दिन के लिये भी प्रभु के साथ उपासी नहीं रह पाती। पर सुन रही हूँ कि उन अन्धी-गन्दी गलियों के कई नर-नारी, आबाल-वृद्ध-वनिता, अर्हत् प्रभु की इस दारुण परिषह-तपस्या को असह्य पा कर, स्वयम् भी कई दिनों से निर्जल निराहार हो कर पड़ गये हैं। वे अन्धी गलियाँ। वे दैन्य, दारिद्य, दुराचार और पाप के अड्डे । नीच वर्गों के वेश्यालय, मदिरालय, जिनमें कभी हम झांकना भी पसन्द नहीं करते। उन्हीं में जा कर वे निगंठ ज्ञातुपुत्र जाने कहाँ खो जाते हैं। लौट कर आने का नाम नहीं लेते।
'हाय रे भगवान, यह कैसा लज्जास्पद व्यंग्य जन्मा है कौशाम्बी में। और ऐसे में उदयन, तू जाने किन वीरानों की खाक छान रहा है? तेरे प्रताप, कला, सौन्दर्य, प्रणय और विजय की, हवाओं में गूंजती गाथाएँ, मुझे आज मिट्टी में लोटती दीख रही हैं। अपने ही रक्तजात भाई के इस तपोहिमाचल वैभव को एक बार, काश, तू देखता उदयन ! तेरे सारे पराक्रम उसके चरणों में पानी भरते रहते जाते . . . !'
महारानी मुगावती, मंत्रीश्वरी नन्दा और सम्भ्रान्त कुलों की अनेक अंगनाओं के आँसू-भीने आँचलों ने मानो तूफ़ान बरपा कर दिया है। उससे ताड़ना पा कर समूचा राजपरिकर देवार्य वर्धमान के दुरन्त अभिग्रह का पता पाने की कोशिश में प्राणपण से जुट गया है। महाराज शतानीक रात-दिन मंत्रणा-गृह में मंत्रियों, आमात्यों, सेनापतियों के साथ मंत्रणा-परामर्श में
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