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जबड़ों-सी दरारों में से निकल कर भूतों, प्रेतों, व्यंतरों, वैतालों, चुडैलों, डायनों के अन्तहीन समूह मंडलाकार अपने चारों और नाचगान करते देख रहा हूँ । वीभत्स, भीषण, भयंकर हैं उनके शरीर, जो कभी ऊँचे और विस्तृत हो कर आकाश को छा लेते हैं, कभी सिकुड़ कर टिड्डी दल-से मुझ पर टूट पड़ते हैं । उनकी गानतानों, नक्काड़ों, ढोलों, मृदंगों, शृंगों और तुरहियों के संगीत में यह कैसा गहरा विषाद है । उसमें सृष्टि के प्राणि मात्र के संघर्ष, मार-फाड़, दुःख, आक्रन्द, शोक, विलाप एक बारगी ही आलापित हो कर दिगन्तों को थर्रा रहे हैं ।
सहसा ही क्या हुआ कि, उन नाचते-कूदते प्रेत-मण्डलों पर छलाँग मार कर, एक तुंगकाय तमसाकार दनुज मूर्ति प्रचंड हुंकार और धमाके के साथ, ठीक मेरे सामने आ धमकी । कोयले के पहाड़-से उसके विद्रूप वीहड़ शरीर पर सिंदूर की प्रवाहित-सी धारियाँ हैं । उसकी क्रोध से विस्फास्ति रतनारी आँखों में ज्वालामुखी थमे हैं । उसके हाँफते जबड़ों में हिंस्र पशुओं से भरी अधियारी खन्दकें हैं । . . उसने अपने दोनों हाथों के प्रकांड त्रिशूल बिजलियों की कड़कड़ाहट के साथ अंतरिक्ष में उछाल कर, हड़कम्पी अट्टाहास किया । फिर अपने त्रिशूलों को झेल कर उन्हें मेरी ओर संचालित करने लगा।
...और हठात् क्या देखता हूँ, कि वे सारे नाचते-गाते दनुज-मण्डल तितरबितर हो कर गुत्थम-गुत्था हो रहे हैं । · ·और चारों ओर से मुझ पर जलती चिताएँ बरस रही हैं। नोचे-खसोटे, लहूलुहान, दुर्गन्धित शव मेरे अंग-अंग पर आ कर पड़ रहे हैं । मेरे मस्तक और कन्धों पर जलती मशालें फेंकी जा रही हैं। प्रहार, पीड़न, ताड़न, दहन की ये सारी आक्रान्तियाँ गुणानुगुणित हो रही हैं । ' - पर देख रहा हूँ, विन्ध्याचल हो कर रह गया हूँ। और इस असह्य संत्रास से घायल मेरा चारों ओर फैला प्राण उद्वेलित हो उठा है । वह मेरे हृदय-गव्हर से वेदना और करुणा के निर्झर की तरह फूट पड़ा है । विन्ध्याचल के अन्तस्तल से, चर्मणवती भूतल पर बह आयी है। श्रमण के पास तो इसके अतिरिक्त और कुछ देने को है नहीं । · पर, कौन है यह महावीर, जो विन्ध्याचल की चूड़ा पर अचल खड़ा, अर्ध्वबाहु आवाहन दे रहा है : 'देखो, मैं आ गया हूँ, तुम्हारा बलि-पुरुष · · · !'
__.. चिताओं, शवों, त्रिशूलों, मशालों की अन्तहीन बौछारों के बीच भी वह ऊपर, और ऊपर ही उठता जा रहा है। हार कर रुद्र देवता का क्रोध पराकाष्ठा पर पहुंच गया । दानवीय दहाड़ के साथ उसने अपने समस्त रुद्रलोक को इस नंगधडंग ढीठ पर टूट पड़ने का इंगित किया । हुंकारों और हूलकारों के साथ हज़ारों भयावह आकृतियाँ आकाशिनी हो कर एक साथ मुझ पर टूट रही हैं। . . .
.. कि हठात् एक मशालधारी सैन्य के बेदम दौड़ते घोड़ों ने उन्हें रौंद डाला। विपल मात्र में ही भयं और मृत्यु का वह आपथिव दृश्य जाने कहां लुप्त हो गया।
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