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________________ १६६ जबड़ों-सी दरारों में से निकल कर भूतों, प्रेतों, व्यंतरों, वैतालों, चुडैलों, डायनों के अन्तहीन समूह मंडलाकार अपने चारों और नाचगान करते देख रहा हूँ । वीभत्स, भीषण, भयंकर हैं उनके शरीर, जो कभी ऊँचे और विस्तृत हो कर आकाश को छा लेते हैं, कभी सिकुड़ कर टिड्डी दल-से मुझ पर टूट पड़ते हैं । उनकी गानतानों, नक्काड़ों, ढोलों, मृदंगों, शृंगों और तुरहियों के संगीत में यह कैसा गहरा विषाद है । उसमें सृष्टि के प्राणि मात्र के संघर्ष, मार-फाड़, दुःख, आक्रन्द, शोक, विलाप एक बारगी ही आलापित हो कर दिगन्तों को थर्रा रहे हैं । सहसा ही क्या हुआ कि, उन नाचते-कूदते प्रेत-मण्डलों पर छलाँग मार कर, एक तुंगकाय तमसाकार दनुज मूर्ति प्रचंड हुंकार और धमाके के साथ, ठीक मेरे सामने आ धमकी । कोयले के पहाड़-से उसके विद्रूप वीहड़ शरीर पर सिंदूर की प्रवाहित-सी धारियाँ हैं । उसकी क्रोध से विस्फास्ति रतनारी आँखों में ज्वालामुखी थमे हैं । उसके हाँफते जबड़ों में हिंस्र पशुओं से भरी अधियारी खन्दकें हैं । . . उसने अपने दोनों हाथों के प्रकांड त्रिशूल बिजलियों की कड़कड़ाहट के साथ अंतरिक्ष में उछाल कर, हड़कम्पी अट्टाहास किया । फिर अपने त्रिशूलों को झेल कर उन्हें मेरी ओर संचालित करने लगा। ...और हठात् क्या देखता हूँ, कि वे सारे नाचते-गाते दनुज-मण्डल तितरबितर हो कर गुत्थम-गुत्था हो रहे हैं । · ·और चारों ओर से मुझ पर जलती चिताएँ बरस रही हैं। नोचे-खसोटे, लहूलुहान, दुर्गन्धित शव मेरे अंग-अंग पर आ कर पड़ रहे हैं । मेरे मस्तक और कन्धों पर जलती मशालें फेंकी जा रही हैं। प्रहार, पीड़न, ताड़न, दहन की ये सारी आक्रान्तियाँ गुणानुगुणित हो रही हैं । ' - पर देख रहा हूँ, विन्ध्याचल हो कर रह गया हूँ। और इस असह्य संत्रास से घायल मेरा चारों ओर फैला प्राण उद्वेलित हो उठा है । वह मेरे हृदय-गव्हर से वेदना और करुणा के निर्झर की तरह फूट पड़ा है । विन्ध्याचल के अन्तस्तल से, चर्मणवती भूतल पर बह आयी है। श्रमण के पास तो इसके अतिरिक्त और कुछ देने को है नहीं । · पर, कौन है यह महावीर, जो विन्ध्याचल की चूड़ा पर अचल खड़ा, अर्ध्वबाहु आवाहन दे रहा है : 'देखो, मैं आ गया हूँ, तुम्हारा बलि-पुरुष · · · !' __.. चिताओं, शवों, त्रिशूलों, मशालों की अन्तहीन बौछारों के बीच भी वह ऊपर, और ऊपर ही उठता जा रहा है। हार कर रुद्र देवता का क्रोध पराकाष्ठा पर पहुंच गया । दानवीय दहाड़ के साथ उसने अपने समस्त रुद्रलोक को इस नंगधडंग ढीठ पर टूट पड़ने का इंगित किया । हुंकारों और हूलकारों के साथ हज़ारों भयावह आकृतियाँ आकाशिनी हो कर एक साथ मुझ पर टूट रही हैं। . . . .. कि हठात् एक मशालधारी सैन्य के बेदम दौड़ते घोड़ों ने उन्हें रौंद डाला। विपल मात्र में ही भयं और मृत्यु का वह आपथिव दृश्य जाने कहां लुप्त हो गया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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