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________________ १५२ वह मुदित और मगन है : प्रभु को अपने आँगन में सम्मुख पाकर कैसा लगेगा? कैसे बार-बार शीश नवाँ कर वह उनकी परिक्रमा करेगा। और उनका वह एकमेव दृष्टिपात । प्रीति का यह आवेश वह अपने में समा नहीं पा रहा है। · · किन्तु जो घटित हुआ, उसे देख कर, जिनदत्त वज्राहत-सा रह गया। वह पुकारता ही रह गया : 'भो स्वामिन् तिष्ट : तिष्ठ : . . .' और नग्न बल्लम की तरह निर्बाध गतिमान प्रभु सामने से निकल गये । एक निगाह उठा कर भी उन्होंने उसकी ओर नहीं देखा । 'हाय, ऐसा क्या अपराध हो गया मेरा?' जीर्ण श्रेष्ठी की तपस्या से जर्जर काया पत्ते-सी काँपने लगी। उसकी आँखों से आँसू ढरकने लगे। · · प्रभु की पीठ का अनुसरण करती उसकी सजल दृष्टि सहसा ही, कुछ दूर पर गर्वोद्धत खड़ी नवीन श्रेष्ठि की हवेली पर ठिठक गई। . . . उस हवेली के द्वार पर कोई द्वारापेक्षण करता नहीं खड़ा है। आतिथ्य भाव से शून्य है वह भवन । ठीक उसी के सम्मुख खड़े हो कर श्रमण ने पाणि-पात्र पसार दिया । गवाक्ष पर बैठे नवीन श्रेष्ठि ने लक्ष्मी के मद से उद्दण्ड ग्रीवा उठा कर अपनी दासी को आदेश दिया : 'किंचना, इस भिक्षुक को भिक्षा देकर तुरन्त बिदा कर दें।' दासी भीतर जाकर काष्ठ के भाजन में कुलमाष धान्य ले आयी, और श्रमण के फैले करपात्र में उसे अवज्ञा के भाव से डाल दिया। . . . . . . 'तत्काल आकाश में देव-दुंदुभियों का नाद गूंजने लगा । चेलोत्क्षेप हुआ । वसुधारा की वृष्टि होने लगी । नानारंगी दिव्य पुष्प और सुगन्धित जल बरसने लगे। लोग एकत्रित हो अभिनव श्रेष्ठि के पास आ पूछने लगे : 'यह क्या चमत्कार हुआ, श्रेष्ठि ?' श्रेष्ठि गद्गद् होकर बोला : 'मैंने स्वयम् पायसान्न द्वारा, प्रभु को पारण कराया है।' आकाशवाणी ने समर्थन किया : 'अहो दानम्, अहो दानम् !' सुन कर प्रजाजनों और गणराजन्यों का भारी समुदाय वहाँ आ उपस्थित हुआ, और नवीन श्रेष्ठि की वाहवाही होने लगी। उधर धरती में निगड़ित-सा जीर्ण श्रेष्ठि यह दृश्य देख कर स्तंभित है। पर उसके भीतर भूचाल है। देव-दुदभियों का नाद सुन कर और वसुधारा की वृष्टि देख कर वह गहरे विषाद और विचार में डूब गया है : 'क्या सत्य जैसी कोई वस्तु इस सृष्टि में है ? या यह सब मात्र इन्द्रजाल है ? · · धिक्कार है मुझ मंदभागी को। त्रिलोकीनाथ प्रभु नक ने मेरी अवहेलना कर दी और माया पर कृपावन्त हुए।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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