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________________ १४९ "तिष्ठ : तिष्ठ : स्वामी, आहार ग्रहण करो, आहार ग्रहण करो। यह तुम्हारा कल्प है, केवल तुम्हारा । . . ." भिक्षुक ने पाणिपात्र पसार कर वत्सपालिका के मृत्तिका पात्र से ढलती खीर ग्रहण की । एक अंजुली पयस पीकर, हाथ खींच लिये। 'नाथ · · ! आ गये तुम, मेरे सर्वस्व, मेरे स्वरूप · · ।' . 'बहुत मधुर है तुम्हारा पयस, वत्सा । अपूर्व ।' 'दासी तर गयी, देवता।' 'दासी मर गयी, देवी।' 'दूर-दूर जाता भिक्षुक गोरम्भा नदी के तटान्त में आँख से ओझल हो गया । वत्सपालिका कुटिया में फिर न लौट सकी । वह आँख से आगे के वृन्दावन में विहार कर गई । श्रावस्ती आया हूँ। नगर के प्रांगण में कार्तिक स्वामी की रथयात्रा का महोत्सव भारी समारोह के साथ मनाया जा रहा है। नगरजन मयूरपंखी वस्त्रों में सज कर, विपुल पूजा-सामग्री के थाल उठाये, गाजे बाजे के साथ देवता के पूजन को निकल पड़े हैं। गंगा पुलिन की एक शिला पर अवस्थित हूँ। शंख, घंटा और तुरहियों के समवेत नाद और जयध्वनियों के साथ देव-प्रतिमा का अभिषेक किया गया है। पूजाअर्चा सपित कर, महामूल्य किरीट-कुंडल, अंशुक, पुष्पहारों से उनका श्रृंगार सम्पन्न हुआ है। अनन्तर भक्तगण सहस्रों कण्ठों के स्तुति-गानों के साथ, विधिपूर्वक देव-विग्रह को रथ में बिराजमान करने को तत्पर हुए। प्रतिमा को उठाने के लिये बढ़े हुए कई हाथ सहसा ही ठिठके रह गये । . . अरे, यह क्या हुआ ? कार्तिक स्वामी स्वयम् ही देवासन से उठ कर चल पड़े हैं। लोगों के आश्चर्य और आनन्द का पार नहीं । रोमांचक हर्ष के आँसुओं में उनकी अन्तहीन जयकारें डूब चलीं । हजारों वर्षों के इतिहास में ऐसा पहले कभी हुआ, किसी ने सुना नहीं था । धातु प्रतिमा में विग्रहीत देवता जीवन्त हो कर, स्वयम् ही पृथ्वी पर चल रहे हैं। अपने चिर जन्मों के दुःखद्वंद्वों से व्याकुल विराट मानव-मेदनी के बीच आ कर, उसके कन्धों से कन्धे रगड़ते हुए वे चल रहे हैं । आप ही स्वयम् चल कर, आज भगवान रथ पर आरूढ़ होंगे । मानव-बुद्धि से इतनी परे घटी है यह घटना, कि दृश्य और दर्शनार्थी, पूज्य और पूजार्थी का भेद इस भीड़ की बहिया में लुप्तप्राय हो गया है। सारा जनप्रवाह देवता के ओरेदोरे कीर्तनगान करता हुआ, कुछ दूर पर खड़े रथ की ओर धंसा जा रहा है। · · 'अरे यह क्या हो रहा है ? कार्तिक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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