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________________ १४७ 'कहाँ गई वे सारी कामिनियाँ ? कहाँ अवसान पा गयी वह कामलीला? कहाँ खो गईं वे तीनों लोकों की सारांशिनी सुन्दरियाँ ? ओह, योगीश्वरों के योगीश्वर हो तुम, महावीर ! तुम से बाहर तो कुछ भी नहीं। काम भी तुम से बाहर नहीं। वह भी मात्र तुम्हारी एक तरंग है। तरंग कैसे समद्र को जीत सकती है। सो वह उसी में से उठ कर, उसी में निमज्जित हो गई, विसर्जित हो गई, निर्वाण पा गई। . . .' 'मैं सौधर्म स्वर्ग का संगम देव, शरणागत हुआ, त्रिलोकीनाथ ! मैंने प्रत्यक्ष देखा, मारजयी हैं महाश्रमण वर्द्धमान । मृत्युंजय है महावीर । देवजाति की समस्त श्री, शक्ति, सम्पत्ति, मर्त्य मानव-पुत्र के आत्मजयी पुरुषार्थ के सम्मुख अन्तिम रूप से पराजित हो गई। · · 'अब कौन-सा मुंह लेकर शक्रेन्द्र के सामने जाऊँ · · ·? देवार्य से महत्तर सत्ता इस समय लोक में विद्यमान नहीं । ऐसे दारुण अपराधी को अरिहंत के सिवाय कौन क्षमा कर सकता है . . ? मुझ अज्ञानी पापात्मा को क्षमा करें, स्वामी ! • • • 'खम्मा, खम्मा, खम्मा । अरिहंत शरणं गच्छामी, सिद्ध शरणं गच्छामी, साहु शरणं गच्छामी । केवली पणत्तो, धम्मं शरणं गच्छामी। 'शरणागत हूँ, भन्ते ! · · पर चरम क्षमा पा कर भी अपराध से मुक्त नहीं हो पा रहा मन !' _ 'वह तू नहीं, संगम । तू आत्मा है, और आत्मा अपराध से ऊपर है । इष्ट। ही किया तू ने : अपनी शक्ति की सीमा जान गया । अब अपनी भूमा को जान सकेगा । अहम् टूटा है, तो वह सोहम होगा ही !' . 'अब मेरे लौटने को कोई स्थान नहीं । कहाँ जाना होगा, भगवन् ?' 'सौधर्म स्वर्ग की इन्द्र-सभा में देवों की समस्त जाति तेरा तिरस्कार करेगी, परिहास करेगी, अपमान करेगी। उससे तेरा कल्याण ही होगा : क्योंकि अहंकार का अन्तिम पाश उससे टूटेगा । स्वर्ग से निर्वासन पा कर, मेरुगिरि की चूलिका पर तू अपनी शेष एक सागरोपम आयु बितायेगा।' 'भगवन् !' 'धन्य हुआ तू, संगम । अमरों की भोग-मूर्छा से जाग कर, मयों की मरण-जयी पृथ्वी पर अब तू मोक्षलाभ का परम पुरुषार्थ कर सकेगा !' 'इन श्रीचरणों को छोड़ कर, अब कहीं जाना नहीं चाहता, देवार्य !' 'अर्हत् नियति से पलायन नहीं करते। उसे झेल कर ही जीतते हैं। वे सदा सर्वत्र तेरे साथ हैं। वे अन्यत्र कहीं नहीं । शरण मात्र माया है। तू जो आप है, वही रह, संगम ! इत्यलम् ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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