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ख्यात प्रदेशी है प्रत्येक परमाण, उसमें सीमा को अवकाश कहाँ ? पर उस विशुद्ध परमाणु को उपलब्ध होना जो शेष है । । ।
· · 'श्वास को सहस्रार में खींच कर, एकमेव परमाणु में केन्द्रित कर दिया है अपने को । एक दारुण विस्फोट से स्नाय और मांस-पेशियाँ तनी जा रही हैं । अपना ही शरीर कई गुना विशाल हो कर सारे आकाश में आस्फालित होता दीखा । - - 'नहीं, यह नहीं होने दिया जायेगा कि पूरे अवकाश को मैं अपना आयतन बना लूं।
__ - 'हठात् प्रकृति की एक और विनाशक सत्ता मुझ पर आक्रमण कर उठी। मगर-सी डाढ़ों वाला एक विशाल पिशाच : भयंकर भट्टी-से दहकते उसके जबड़े। प्रलम्बायमान काली चट्टानों-सी अपनी जंघाओं तथा उरुस्थलों के बीच मुझे भींचने में उसने अपनी सारी ताक़त निचोड़ दी । पर यह क्या हुआ कि क्षण भर पहले विराट में बेतहाशा फैल रही मेरी देह पलक मारते में वामन हो कर, उसकी जाँघों की साँड़सी से छिटक गई । अपनी दोनों बाँहों को कैंची की तरह विस्तारित करता हुआ, वह तेज़ी से कतरनी चलाने लगा। मैंने अपने आपको उस कत्तिका के बीच डाल दिया । कि उससे कट कर भी, हो सके तो, इन सब का ममत्व पा सकू. इनके बीच रहने लायक हो सकुँ । मगर मेरे वश का क्या है ? एकाएक अनुभव हुआ कि वह कैची पानी में चल रही है, हवा को कतर रही है । उसकी धारों पर बार-बार अपने को फेंका, लेकिन हाय, यह पैशाचिक कैची भी मुझे धोखा दे गई । __ सहसा ही, चुके तेल वाले दीपक-सा वह पिशाच जैसे घुप से बुझ गया। एक शून्य अँधियारे अथाह में सब कुछ असूझ हो गया। बस एक पीले कनेर फूल की तरह हलकी, महीन मेरी एकाकी काया उसमें जैसे तैर रही है। · · एक गुफा तट के सरोवर में निकल आया हूँ, और चाँदनी रात में, सम्पूर्ण चन्द्रमण्डल की तरह, उस झील की शीतल मिलता पर अपने को निर्बाध विचरते अनुभव किया ।
· · 'अचानक उस तरंगिम पानिलता में कहीं एक खन्दक-सी खुल पड़ी। और दहाड़ता हुआ, एक दर्द्धर्ष सिंह उसमें से उछल कर बाहर आया। और अपने दोनों अगले पंजे उटा कर, उसने मेरी कटि में दोनों ओर से नख गड़ा कर मुझे उरु-संघि में से विदीर्ण कर देना चाहा । मैंने अपनी जाँघों को पूरा पसार कर उसे सुविधा कर दी, कि हो सके तो अपनी डाढ़ों से मेरी त्रिवली को भेद कर, मेरे भीतर आरपार चला आये । ताकि मेरी इस निरी वायवीयता को उस विशाल भयावह प्राणि-पिड में सहारा मिल जाये । · · 'सहारा तो मिला, मगर यों कि व्याघ्र मेरे भीतर आने के बजाय मैं ही उसके भीतर खींच लिया गया । · · ·उसके भीतरी देह-विश्व की संरचना में रममाण हो कर, कुछ ऐसा सुख अनुभव हुआ जैसे सृष्टि के किसी गहनतम राजकक्ष में, जाने कितने ही रहस्यों की सुगन्धित मंजूषाएँ मेरे सामने खुल रही हों । एक अगोचर परमाणु के स्कन्ध होने से लगा कर, प्रकृति
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