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श्रमिकों के एकमात्र तारनहार मेरे सामने खड़े हैं। · · अपनी आँखों पर विश्वास नहीं होता ।
.. ओह प्रभु, आपके माथे पर यह रक्तधारा, यह फटान कैसी? . . . मेरे घन की चोट तो लौट कर मुझी पर आई थी न ? · . .
'समझ गया, अपने हत्यारे के शिरस्त्राण हो कर, मुझ पर लौटे हुए मेरे ही वार को, तुमने अपने मस्तक पर झेल लिया...! ___भन्ते, मुझे सौ बार धिक्कार है। उगार लें इस पापी को। मेरे लिये प्रायश्चित का विधान करें।
'मैं वैशाली नहीं आया, केवल तेरे पास आया हूँ, आयुष्यमान । सावधान, मेरा नाम भी कहीं तेरे मुंह से न निकले । मैं उपस्थित हो कर भी, यहाँ अनुपस्थित
'एवमस्तु, भन्ते ।' एक दीर्घ सन्नाटा . . . 'मेरे पाप का कोई प्रायश्चित नहीं, भन्ते ?'
'महावीर पाप नहीं देखता, वह केवल चिद्घन आत्मा देखता है । वही तू है, मैं तुझे देखता हूँ।' _ 'कृतार्थ हुआ, कृपानाथ ! · · · पर मेरी निहाई तो सदा को समाप्त हो गई, भन्ते ? अब क्या होगा, सदियों पुरानी ऐसी विशाल निहाई अब कहाँ मिलेगी ?'
'महावीर का मस्तक आज के बाद तेरी निहाई होगा, लोहकार !' 'खम्मा, खम्मा स्वामी, मेरे पाप का अन्त नहीं।'
'पाप का सदा को अन्त हो गया । अपनी चिद्घन आत्मा के घन से अब तू मेरे मस्तक की निहाई पर वैशाली के लिये नया शस्त्र गढ़ेगा । सांकलें और आगले
नहीं !'
'समझा नहीं, भगवन् ?' ‘समय आने पर समझेगा, सौम्य ।' 'प्रतिबुद्ध हुआ, देवार्य ।'
· · ·लौट पड़ा हूँ वैशाली से । राजमार्ग छोड़कर अड़ाबीड़ अटवी में राह काट रहा हूँ· · । मेरे लहूलुहान पैरों को ये कौन दो मृणाल पीछे खींच रहे हैं . . . ? नहीं आम्रपाली, आज नहीं · · ! जानता हूँ, कल आधी रात तुम किसी विस्फोटक आवाज़ से अचानक जाग उठी थी। तुम्हारे कक्ष के बन्द रत्न-कपाट अचानक टूट कर गिर पड़े थे. । नहीं, भ्रांति नहीं थी वह तुम्हारी । तुम्हारे द्वार में
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