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सहस्रावधि वर्षों से नाना संत्रास भोगते नारकी जीव, अपनी चिर पुराचीन यातनाशैया से उठ कर प्रसन्न मुस्करा उठे हैं। जीव मात्र की वह सुखानुभूति अपने स्नायुओं में प्रवाहित-सी अनुभूत हो रही है । जैसे समूचे देश - काल में दुःख इस क्षण अवसान पा गया है। प्राणि मात्र अभी और यहाँ में एकाग्र भाव से निर्बाध सुख भोग रहे हैं ।
कासनी रंग की एक विचित्र सुगन्धानुभूति के साथ, जैसे दिनमान ही बदल गया है। छहों ऋतुएँ एक साथ घटित हो गई हैं। उनके सम्मिलन से एक विलक्षण सातवीं ऋतु सब तरफ खिल उठी है । आसपास की इस दिगन्तव्यापी वनभूमि में पेड़-पौधे एक बारगी ही सब ऋतुओं के फूलों और फलों से लद कर झुक आये हैं । प्रकृति रस- संभार से विनत नववधु -सी जानू सिकोड़ कर लज्जानत बैठी है । ऐसे सोहाग से दीपित तो उसे पहले कभी नहीं देखा । किस प्रियतम की अगवानी में उसकी रूपश्री ऐसी खिल उठी है ?
अरे यह क्या ? मेरी आँखों से आंसू झर रहे हैं ! मैं तो कठोर वीतरागी, श्रमण संन्यासी हूँ | श्रमण तो सारे रस राग से परे होता है । वीतरागी की आँखों में आँसू कैसे ? नहीं, कोई व्यथा या विषाद नहीं है मुझमें । एक आनन्द का समुद्र भीतर से उमड़ा चला आ रहा है : और दिशाओं के आरपार बह रहा है। ऐसे आनन्द की अनुभूति तो पहले कभी नहीं हुई । अकारण और अनाविल है यह आनन्द । उस मिलन का सुख, जिसके लिए संसारी जीवन में सदा तरसता रहा, पर पा नहीं
सका ।
कब साँझ हो गई, पता ही न चला। और अब तो रात भी बीत चली है, ऐसा लग रहा है । जैसे किसी अन्तहीन रात के सवेरे में एकाएक जाग उठा हूँ । ब्राह्म मुहूर्त में असंख्य शंख-ध्वनियों से आकाश का गुम्बद गुंजायमान हो उठा है । आम्र-मंजरियों की भीनी-भीनी गन्ध में कोयल कुहुक कर कह रही है : यह उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र है : चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की पीली महीन चाँदनी में दूरागत मंजीरों की झंकार सुनायी पड़ रही है । वैशाली के प्रान्तरों में सौ-सौ शहनाइयों की रागिनियाँ अन्तहीन हो उठी हैं। घंटा घड़ियाल और मृदंगों के घोष गहराते जा रहे हैं ।
'एकाएक क्षितिज पर की अरण्यानी एक विशाल द्वार की तरह खुल पड़ी । एक झटके के साथ जैसे मेरा आसन उत्थान हो गया । ध्यानस्थ पद्मासन में ही ऊपर से ऊपर उठा जा रहा हूँ । मेरे वश का कुछ भी नहीं है । मेरा कर्तृत्व शेष नहीं रह गया है । केवल देख और अनुभव कर सकता हूँ ।
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