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ज्वाला | ओह, अंगिरा ! 'ये दुर्दान्त अग्नि, अन्तरिक्ष के पटलों को भेदते हुए, कण-कण को प्रज्वलित किये दे रहे हैं । अरे साक्षात् वैश्वानर विश्व पुरुष । मेरी ही उरु-गुहा में से उठकर ये धधक रहे हैं। मैं कांप-काँप आई : ये सी आहुति चाहते हैं ? मेरी देह के अस्थिबंध, स्नायुबंध टूट रहे हैं । 'हाँ, मुझे ही आहुति हो जाना है । शान्तम् शान्तम् देवता । लो, मैं आई।' ' और विपल मात्र में पाया कि, वह विराट् वह्निमंडल मेरे ही भीतर अन्तरधान हो गया ।'
यह कैसी गहन शांति अनुभव कर रही हूँ । सारी देह, जैसे कपूर का सरोवर हो गई है । और मेरे उस अन्तर - गव्हर में से उठ आया एक विशाल धबल बैल । मेरे वक्ष-तट पर वह खड़ा है । और उसकी टाँगों के बीच लोक-लोकान्तर झांक रहे हैं। कितना प्रीतिकर और सुखद है, इसका स्पर्श । • और मेरी पुलकित रोमालियों में संचरित होता हुआ, वह पीत-धवल वृषभ मेरे मुख में प्रवेश
कर गया ।
यह कौन आ रहा है, मेरी छाती में लात मारता हुआ ? उस अपूर्व सुखद पदाघात से मैं जाग उठी।
सचेत होकर पाया कि अपने कक्ष में ही हूँ । समाधीत लेटी हूँ । एक भारहीन फूल की तरह । विश्रब्ध हो गया है । प्रसन्न जिज्ञासा के साथ सोच रही हूँ हूं। सपनों के जाने किस श्वेताभ देश में यात्रित थी। एक ही स्वप्न कक्ष में, जाने कितने सपनों की एक चित्रमाला खुलती चली गई । • और मेरी समूची चेतना अनोखे उल्लास से उन्मेषित है ।
अपनी शैया में बहुत शांत
भीतर-बाहर सब कुछ कहाँ-कहाँ घूम आयी
इस सुख को अपने ही में समाकर न रख सकी। उठ कर 'उनके' पायताने जा बैठी । 'उनकी' पगतलियों पर माथा डालकर, संकुचित-सी लेट गयी। मन ही मन पुकारा: 'देवता, इतने प्रिय तो तुम पहले कभी नहीं लगे। मैं कृतकाम हो गई ।
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'ओ' 'प्रियकारिणी !'
उठकर वे मेरे ढलके केशों को चुपचाप सहलाते रहे ।
'उठो ' 'क्या बात है, विदेहा ?'
'उठकर, उनकी गोद में सिमट गई अपनी स्वप्न यात्रा की कथा उन्हें सुनाती चली गई ।'
और फिर भरे-भरे गले से,
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