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'और प्रियतम, हवा में यह कैसे अज्ञात फूलों की विचित्र गंध महक रही है । जलफूलों की गन्ध, बादल - फूलों की परिमल ! ये पार्थिव फूल नहीं । जाने किस शुद्ध पानी के लोक से आ रही है यह गन्ध ! '
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'लावण्य का वह अंतिम समुद्र, यहीं तो लेटा है, इस सामने की शैया में ! अपने बहुत की जलजूही को पहचानो, प्रियकारिणी ।'
'ओह ं ं ंसचमुच ! तुम्हारी आँखों से ही तो अपने को देख सकती हूँ, मेरे वल्लभ ! आज सबेरे ही, जैसे फूलों के समुद्र में से उठी थी । कैसा विचित्र अनुभव था । मेरी हर अनुभूति में खेल रहे हो तुम । केवल तुम्हीं ! '
'काश्यप सिद्धार्थ हुआ तुम्हें पाकर, त्रिशा ! '
'लेकिन मेरे प्रभु, बाहुतट के ये फूल झर रहे हैं, एक-एक कर । एक दिन ये सब झर जायेंगे | तब ?'
'तुम्हारी बाहुएँ सदा वसन्त हैं, रानी ! वे नित-नूतन पुष्पित होती चली
।'
'पर, मैंने देखा है, इन फूलों की नसों में व्याप्त मृत्यु को !
किसी भ्रम में नहीं हूँ । कभी नहीं थी ।'
'क्या कह रही हो, त्रिशा ? '
वैशाली के आँगन में, मैंने एक शेफाली को अंतिम रूप से झरते देखा था । उस बाला की वह निष्प्रभ मुखश्री भूलती नहीं है। पहली रात ही, तुम्हें वह कहानी कही थी, और तब मैं बहुत अनमनी हो गई थी । और तुम मुझे किसी भी तरह मना नहीं सके थे। हमारी सोहागरात अछूती ही बीत गई थी !'
'जायेंगी
राजा सुनकर सहम उठे । उनके भीतर अँधियारे अतल खुल पड़े । भयार्त, वे 'चुप हो रहे । एक गभीर सन्नाटे में, तमस का एकाकी द्वीप तैर रहा था ।
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'नहीं, मैं अब
'प्रियकारिणी !'
'पहली ही रात, तुम्हारी अप्रिय हो रही । प्रियकारिणी कैसी
मैं ?
'वह सर्व की प्रियकारिणी का विषाद था । और भी अधिक प्रिय लगी थीं
तुम अपनी उस चरम विरह वेदना में ।
'और अब आज तो, बरसों की आहुति बाद, तुम्हारी अनि सोम बनकर झर रही है तुम्हारे सर्वांग में । सोम तो सुधा है, रानी । सुधा-सरोवर के तट पर कल्प-लताएँ बन छायी हैं, आज तुम्हारी बाहुएँ ।
इन फूलों में मृत्यु कैसी?'
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