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________________ १७ असली जन-मन वह सतही दीमाग नहीं है जो अनेक ऊपरी-बाहरी प्रभावों, प्रश्नों और सन्देहों के बीच झोले खाता रहता है। वह तो वह अन्तर्मन या सामग्रिक अवचेतना (कॅलेक्टिव अन्कॉन्शस) है, जो आदिकाल से आज तक के इतिहास-व्यापी ज्ञान, संस्कृति और विश्वासों की अखंड अन्तर्धारा से निर्मित है। उस तक जो कृतित्व पहुंच सके, उसे अनायास अपील कर सके, उसे उदबुद्ध और प्रगतिमान कर सके, उसके गत्यवरोध को तोड़ कर, उसके बहाव को नयी भूमि और नयी दिशा दे सके, वही मेरे मन सच्चा सृजनात्मक कृतित्व कहा जा सकता है। जो भी कुछ इन्द्रिय-गोचर न हो, जो स्थूल आंख से न दिखाई पड़े, उस सबको नकारने और उसमें अविश्वास करने वाले एकान्त बुद्धिवाद और विज्ञान का युग तो जगत के अप-टू-डेट ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में कभी का समाप्त हो चुका। अब तो विज्ञान की दुनिया में अन्तरिक्ष युग आविर्भत हो चुका है; मनोविज्ञान परा-मानसिक, अतीन्द्रिय अगोचर के सीमान्तों पर मनुष्य की किसी सम्भावित आध्यात्मिक चेतना का अन्वेषण कर रहा है; और दर्शन के क्षेत्र में 'फिनॉमेनालॉजी' सारे दायरों को तोड़कर हर दृश्य-अदृश्य या कल्पनीय सम्भावना तक को अपने ज्ञान और खोज का विषय बना रही है। असीम अवकाश में हमारी आँख से परे, जाने कितनी दुनियाएँ फैली पड़ी हैं। हमारी पृथ्वी तो आज के ज्योतर्वैज्ञानिकों की निगाह में, उन ज्ञातअज्ञात परलोकों और ज्योतिर्मय विश्वों के आगे बहुत छोटी पड़ गई है। तब महावीर या बुद्ध जैसे लोकोत्तर व्यक्तित्वों के सान्निध्य में देवलोकों के उतरने की बात पर चौंकना या मुंह बिदकाना, आज के सन्दर्भ में बहुत अज्ञानपूर्ण, अवैज्ञानिक और हास्यास्पद लगता है। मैं अपने इन आउट-मोडेड साहित्यिक मित्रों और भारतीय विद्या के बुद्धिवादी शोध-विद्वानों को स्पष्ट जताना चाहता हूँ कि उनका यह सुधारवादी और छद्म-आधुनिकतावादी नजरिया असलियत में अब रूढ़ीवादी होकर, बहुत पुराना पड़ चुका है। अवतारों, तीर्थंकरों या योगियों के सन्दर्भ में जो अधिदैविक घटनाओं के घटित होने, या दिव्य सत्ताओं के आविर्भाव के विवरण मिलते हैं, उनकी बौद्धिक-तार्किक या सुधारवादी व्याख्याएँ, आज के प्रगत ज्ञान-विज्ञान के युग में बहुत कृत्रिम, बचकानी और नादानीभरी लगती हैं। तीर्थकर महावीर के आध्यात्मिक और भागवदीय पदस्थ (स्टेटस) को जो भव्य-दिव्य विभावना (कॉन्सेप्ट) परम्पराओं और शास्त्रों से हमें उपलब्ध For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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