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प्रस्थानिका
ईसा पूर्व की छठवीं सदी में महावीर का उदय एक प्रतिवादी विश्व-शक्ति के रूप में हुआ । जो जीवन-दर्शन उस जमाने में वाद ( थीसिस ) के रूप में उपलब्ध था, वह विकृत और मृत हो चुका था। प्रगतिमान जीवन को उससे सही दिशा नहीं मिल रही थी। पृथ्वी पर सर्वत्र ही एक गत्यवरोध और अराजकता व्याप्त थी। तब उस छिन्न-भिन्न वाद के विरुद्ध एक प्रचण्ड प्रतिवाद (एण्टीथीसिस) के रूप में महावीर आते दिखायी पड़ते हैं। उस समय के विसंवादी हो गये जगत का प्रतिवाद करके, उन्होंने उससे एक नया संवाद (सिंथेसिस) प्रदान किया।
वेद के ऋषियों ने विश्व का एक सामग्रिक भावबोध पाया था। उनका विश्व-दर्शन एक महान् कविता के रूप में हमारे सामने आता है। पर उस कविता में भी वे विश्व के स्वयम्-प्रकाश केन्द्र सविता तक तो पहुँच ही गये थे। गायत्री में उनका वही साक्षात्कार व्यक्त हुआ है; किन्तु यह दर्शन केवल भावात्मक था, प्रज्ञात्मक नहीं। इसी कारण इसकी परिणति भावातिरेक में हुई। देह, प्राण, मन, इन्द्रियों के स्तर पर उतर कर यह भावातिरेक स्वयम्भ सविता के तेजस्केन्द्र से विच्युत्त और वियुक्त हो गया। अभिव्यक्ति अपने मूल स्रोत आत्मशक्ति से बिछुड़ गई। भावावेग में सारा जोर अभिव्यक्ति पर ही आ गया। वृक्ष का मूल हाथ से निकल गया, केवल तूल पर ही निगाह अटक गई। जड़ से कट कर झाड़ के कलेवर में हरियाली कब तक रह सकती थी ? सो वह मुझाने लगा, उसका ह्रास होने लगा। यहीं वेद वेदाभास हो गया। सविता के उद्गीथों का गायक ब्राह्मण पथ-च्युत और वेद-भ्रष्ट हो गया । फलतः कर्म-काण्डी ब्राह्मण-ग्रंथों की रचना हुई।
तब उपनिषदों के ऋषि प्रतिवादी शक्ति के रूप में उदय हुए। क्षत्रिय राजर्षियों ने प्रकट होकर अपने विजेता ज्ञान तेज और तपस् द्वारा सविता
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