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________________ ३४० उनके आलुलायित केशों का मोहान्धकार मेरे चरण-तटों में आकर विलीन हो जाता है। - अगल-बगल खड़े परिजन-परिवार के सारे चेहरे, किसी एकमेव आत्मीय चेहरे की चिरन्तन् परिचिति में एकाकार-से दीखे। पास झुक आये माँ और पिता के युगलित मुखड़ों पर, आँसू-झरती मुंदी आँखें मेरे सम्मुख चित्रित-सी रह गयीं। . . .'मां, बापू, वियोग की रात बीत गयी। · · 'मेरे परम परिणय की इस मंगलबेला में आशीर्वाद दो, कि अपनी अनन्या वधु का वरण कर जल्दी ही तुम्हारे पास लौट आऊँ. . !' ____ 'ओ री पागल वैना, बहा दो अपने सब आँसू । इतने कि मेरी मुक्त जलक्रीड़ा के शाश्वत सरोवर हो जायें। :: ‘अरे सोमेश्वर, सखा का साथ नहीं दोगे, कियों व्याकुल हो रहे हो? क्या तुम नहीं चाहते कि तुम्हारी कविता को लोकालोक में साकार करूँ ? ठीक मुहूर्त में आ पहुँचोगे मेरे पास, और दोनों मिल कर महावीर की कैवल्य-प्रभा से कण-कण को भावित और सुन्दर कर दोगे • •!' सहस्र-सहस्र प्रजाजनों की राशिकृत मेदनी चारों ओर घिरी है। सारे चेहरे आंसुओं से उफन रहे हैं। दबी सिसकियों से सुबकते जाने कितने नर-नारी वक्ष मेरे निश्चल अंगांगों में आलोड़ित हो रहे हैं। :: 'एकाएक दिखायी पड़ा : चेटकराज, सुभद्रा नानी, सारे मामा लोग, रोहिणी मामी तथा वैशाली के अनेक लिच्छवि कुल-राजन्य आसपास घिर आये हैं। · · 'अरे नानी माँ, वियोग के अँधेरे में पीछे छूटोगी? विदा के इस क्षण में अटूट संयोग की गोदी में मुझे नहीं लोगी? . . . और मेरे चेटक-बापू, क्या वैशाली के ही गणनाथ हो कर रहोगे, समस्त लोक के बापू नहीं बनोगे? और फिर जा कर भी, तुम से दूर मैं कहाँ जा सकता हूँ? • • और आर्यावर्त की सिंहनी रोहिणी मामी, तुम तो मेरे सूरज-युद्ध की संगिनी हो, यों कातर हो कर मुझे अकेला छोड़ जाओगी? • • 'ओ मेरी प्रजाओ, मैं यदि जीवन का नया रक्त बन कर तुम्हारी शिराओं में व्याप जाना चाहता हूँ, तुम्हारी साँसों में बस जाना चाहता हूँ, तो क्या यों सुबक कर मेरी राह रोकोगे ? मुझे निर्बाध अपने भीतर न आने दोगे ? · · · चन्दन्, तुम यहाँ न दिखायी पड़ी न ! ठीक ही तो है। तुम्हारे पास आने को ही तो यह महाप्रस्थान कर रहा हूँ। . . तुम्हें सामने पाते ही जान लूंगा, कि जहाँ पहुँचना था, वहाँ पहुँच गया हूँ ! . . . लिच्छवि कुलपुत्रो, निश्चिन्त हो जाओ। मेरी आत्मजय और वैशाली की विजय को भिन्न न जानो। त्रिलोक का वैभव जो यहाँ समर्पित है इस घड़ी, उसे क्या अनदेखा करोगे? · . .' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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