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• • 'मेरे सामने पंक्ति-बद्ध आ कर खड़े हो गये हैं, ये दिव्य रूपधारी कुमारयोगी। सारस्वत, आदित्य, ब्रह्नि, अरुण, गर्तोदय, तुषित, अव्याबाध, अरिष्ठ आदि जाने कितने ही नाम, कुहरिल हवा में गूंज कर, कहीं ज्योतिर्मय अक्षरों में भास्वर हो उठे। · · ·ढेर सारे कल्प-वृक्षों के फूल उन्होंने मेरे चरणों में बिखेर दिये।
एक अत्यन्त सुखद मार्दवी तन्द्रा में मेरी चेतना डूबने-उतराने लगी। कई धनुषाकार सुन्दर ओठों की पंक्तियों से उच्चरित होता सुनाई पड़ा : ‘बुज्झह . . बज्झह! मा मुज्झह · · ·मा मुज्झह ! • • .' : 'जागो : 'जागो! मुर्छा में न रहो - ‘मूर्छा में न रहो!' क्षणक के अन्तराल से फिर सुनाई पड़ा : उट्ठाहि... उद्याहि · · !' : 'उठो· · · उठो!' फिर गभीर चुप्पी के उपरान्त एक लम्बायमान ध्वनि अन्तहीन हो गयी : ‘पट्टाहि पट्टाहि !' : 'प्रस्थान करो.. प्रस्थान करो!' ____ और उस ध्वनि के छोर पर मेरी बाह्य चेतना सर्वथा विलुप्त हो गई। . . -- .. : . 'अपूर्व है आज के ध्यान की गहराई और उसका विस्तार । अब तक के ध्यान की चरम तल्लीनता में, एक रेशमीन अन्तरिक्ष के दूरातिदूर विराट् प्रसार में कोई एकमेव नील नक्षत्र तैरता दिखाई पड़ता था। · · ·इस क्षण वह वृहत्तर होता हुआ एक अण्डाकार नील ज्योति-पुंज में प्रभास्वर हो उठा। और अगले ही क्षण, किसी नीलमी महल के तटान्त पर खड़ी एक नीलेश्वरी सुन्दरी, बाँहें पसार कर आवाहन-मुद्रा में विशालतर होती दिखायी पड़ी। उसकी देह के प्रत्येक अवयव में सहस्रों आँखें खुली हैं : और उन आँखों में सारी इन्द्रियों के द्वार एकाग्र, एकाकार होते जा रहे हैं। · · ·देखते-देखते मैं एक सुनील समुद्र के प्रशान्त प्रसार में विसर्जित हो गया। ..
[मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी]
• • ब्राह्म मुहूर्त की निर्मल वायु-तरंगों में अनुभव हुआ : सारे स्वर्गों के पटल और इन्द्रों के आसन कम्पायमान हो रहे हैं। अनगिनती कल्प-विमानों के वैभव और ऐश्वर्य उमड़ कर नन्द्यावर्त-प्रासाद की ओर प्रवाहित हैं।
· · 'उषःकाल के मोतिया आलोक में जब आँखें खुलीं, तो पाया कि अपनी शैया में नहीं हूँ। पद्मराग-शिला की एक चौकी पर पद्मासन में आसीन हूँ। सहस्रों इन्द्र अपनी इन्द्राणियों और देव-देवांगनाओं के परिकर के साथ, क्षीर-समुद्र के
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