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परमाग्नि में तपो। विश्व-प्राण में ही अब मिलन संभव है, तुम और मैं के खण्डित प्राण में नहीं। - - ‘जाओ देवता, अपने ही भीतर लौट जाओ। · · वहीं मैं मिलूंगी।'
पर्जन्यों की घनघोर आक्रान्ति के साथ, रात गहराती चली गयी। अन्धकार का राज्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच रहा है। सब कुछ अचिह्न, असूझ, अभेद्य हो गया है। क्या अन्धकार अपनी ही निदारुण आकुलता से छटपटाता हुआ, अपने ही भीतर फूट पड़ेगा? तमस के सारे कोषावरण भिदते जा रहे हैं। फूट कर, इसके सीमान्त पर क्या होगा?
- माँ अदिति, कहाँ हो तुम? असह्य है यह अन्धकार की कारा। विवश, असहाय, विशीर्ण हो रही हैं मेरे तन, मन, प्राण की पर्ते, इस तमस की गहराइयों में। मेरी विरह-वेदना का अन्त नहीं है। निखिल प्राण की धारा से बिछुड़ी जा रही हैं। · · दूरियों में देख रही हूँ--हजारों पशुओं और मानवों की करुण-कातर, मूक आक्रन्दभरी आँखें, सौ-सौ सर्वभक्षिणी ज्वालाओं को विवश ताक रही हैं। · · वे मेरे सारे शिशु, मुझसे किसने छीन लिये हैं ? आर्त नयनों से वे दिगन्तों में मुझे ही तो टोह रहे हैं। उनके अवरुद्ध रुदन से मेरी कोख फटी जा रही है। मेरी नसें छिन्न-भिन्न हो रही हैं।
. . 'मेरे नाड़ी केन्द्र में फुटो मां, उठो माँ अदिति । तुम्हारे जाये को धारे बिना मेरी देह की धरित्री अब अस्तित्व में नहीं रह सकेगी। अस्ति के इस छोर पर, मेरी वेदना और भय का अन्त नहीं। इसके आगे नास्ति का अन्धकार है 'असत्ता की बीहड़ अथाह खाइयाँ हैं। . .
__.. 'मेरे भीतर प्रकटो माँ, मुझे थामो मां। मैं गिरी' - 'मैं गिरी' मैं गिरी जा रही हूँ। ये कैसी मूर्छा के दुर्दाम हिलोरे हैं। · · 'मैं गयी - 'मैं डूबी • • “मैं डूबी · · 'मैं नहीं रह गयी
• - फिर यह कौन है जो देख रहा है, अनुभव कर रहा है, कि अन्धकार का सीमान्त टूटने जा रहा है। · · लो, यह टूटा, यह विस्फोटित हो गया। मेरे मूलाधार में से मेरी कोख ऊपर उठी आ रही है । अशेष ऊपर उठती ही चली आ रही है। देख रही हूँ, एक शुद्ध रक्ताभ कोकनद, ध्वान्तों के वातवलयों को चीर कर, ऊवों में उत्तरोत्तर ऊपर-ऊपर और ऊपर उठता जा रहा है। मेरे नाड़ी-मण्डल को तोड़कर उद्भिन्न है मेरा यह अस्तित्व । मेरी सत्ता, मात्र कोख बन कर दिगन्तों तक व्याप गयी है। · · ·ओ तू, तुझे धारण करूँ, या फिर विदीर्ण होकर, शून्य में विलीन हो जाऊँ ! • • •
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