SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बोर अब वह उन्हें छोड़कर चला भी जाना चाहता है। विचित्र है उनकी स्थिति । इस अनहोने बेटे पर गर्व करें, या उसके सामने खड़े हो बुक्का फाड़ कर रोयें, और उससे अपने लुटते अस्तित्व के त्राण की भीख माँगें : क्या करें वे? उनके असमंजस का अन्त नहीं। पर मेरे मन में तो कोई असमंजस नहीं। · · क्योंकि मैं कोई नहीं, मेरा कोई विधान नहीं। अन्तिम विधान महासत्ता का है, जिसने महावीर को इस रूप में यहाँ घटित किया है। जाने वाला मैं कौन होता हूँ? मैं निरा व्यक्ति नहीं : उस परम सत्य से चालित एक निर्बन्ध शक्ति मात्र हूँ। परिचालना उसी की है, मेरी नहीं। .. . आज अपराह्न अचानक मां और पिता मेरे कक्ष में आये। विनयाचार के बाद हम यथास्थान बैठे। शब्द बहुत देर तक सम्भव न हो सका। तनाव के त्रिकोण में, एक विस्फोटक सन्नाटा घुटता रहा। 'वर्द्धमान, प्रलय की इस घड़ी में तुम्हीं पहल करो। जाओ वैशाली और एसके सिंहतोरण में खड़े हो कर, अपने सत्य के बम-गोले का विस्फोट कर दो। इस घुटन में अब एक पल भी हम जी नहीं सकते। जाने से पहले तुम्हीं अपने जगाये ज्वालागिरि का दो टूक फैसला कर जाओ। या तो हमें मार जाओ, या तार नाओ। हमें फांसी के फंदे में दम घोंटते छोड़ कर, तुम जा नहीं सकते।' ___ 'शान्त हों तात, जाना-आना तो देश-काल की एक माया मात्र है। मैं तो सदा सबके साथ हूँ, तो आपके साथ भी हूँ ही। स्पष्ट कहें, क्या चाहते हैं आप मुझ से ?' 'वैशाली के सिंहपौर पर खड़े हो कर घोषणा कर दो, कि तुम वैशाली के राजपुत्र वर्द्धमान, वैशाली को लोक के प्रति दान करते हो। तुम्हारी चाह पूरी हो। फिर उसका फल भोगने को हम यहाँ हैं ही। तब तुम निद्वंद्व जा सकते हो !' वृद्ध पिता की घुमड़ती आवाज़ में गहरा रोष था, अभियोग था, और आर्तनाद था। सहसा मैं कुछ बोल न सका : एक टक सम्यक् दष्टि से मैं उन्हें आरपार देखता रह गया। 'बापू, मेरा जो भी कर्त्तव्य होगा, वह मुझ से पूरा होगा ही। आप निश्चिन्त रहें। वैशाली मुझ से बाहर कहीं नहीं। वह मुझ में, और मैं उसमें ओत-प्रोत हैं। उसका विनाश या उत्थान, दोनों मेरी साँसों पर होगा। मुझ से बाहर कोई वैशाली है, तो उसे दान करने का दम्भ कैसे कर सकता हूँ ! हर वस्तु अपना दान स्वयम् ही कर सकती है, दूसरे का उस पर वैसा कोई अधिकार नहीं। उस दिन संथागार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy