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'तो देवा, बहुत दिनों से सूनी पड़ी यज्ञशाला में, अपने हाथों उन्हें प्रकटाओ । तुम्हारे हाथों वे सत्य रूप में प्रकट होंगे।'
'नहीं, अब वे बहिर्यज्ञ से प्रीत नहीं होंगे। अन्तयंज में ही वे प्रकट हो सकेंगे। गयी रात मैंने देखा : वे मेरे अन्तर में शत-शत जिह्वाओं से विह्नमान हैं। मेरे रोम-रोम में आज अंगिरा अंगारों से धधक रहे हैं। भूदेव, जाकर कह दो अपनी इस ब्रह्मपुरी के समस्त ब्राह्मणों से, कि अंगिरा तुम्हारे सर्वस्व की आहुति मांग रहे हैं। तुम्हारी लिप्साओं और वासनाओं का भक्षण करने के लिए वे सहस्र जिह्व होकर लपलमा रहे हैं। • ‘अपनी ब्राह्मणी को पहचान सको तो पहचानो, ब्रह्मदेव ! . . .'
'देख रहा हूँ, तुम साक्षात् गायत्री हो, जालन्धरी! अंगिरसों, अत्रियों और भार्गवों की देवांशिनी बेटी हो। तुम्हीं यज्ञ की अग्नि बन कर प्रकट होओ! अपने हुताशन के श्वेत अश्वों पर आरूढ़ होकर, अन्तरिक्ष में धावमान होओ। द्यावा की उषा, पृथिवि पर उतरने के लिए तुम्हारे रथ की प्रतीक्षा में है। हमारी यज्ञशाला का द्रोण-कलश, उसकी सोम-सुरा का प्यासा है। उस सोम का अमृत सिंचित कर मृतप्राय ब्राह्मणत्व में नवजीवन का संचार करो, देवा' :!'
_ 'ब्रह्मदेव की अभीप्सा पूरी हो! तब अंतिम रूप से जान लो, हवन-कुण्डों की स्थूल अग्नियों से अब परम अग्नि जागृत नहीं होंगे। अब हमें श्रमण-चर्या अंगीकार करनी होगी। अप्रमत्त भाव से दिन-रात तपस् के श्रम द्वारा, संघर्ष द्वारा, अन्तश्चैतन्य के वैश्वानर को प्रकट करना होगा। निरन्तर श्रम की आहुति से उन्हें तृप्त करना होगा। जब वे आप्यायित होंगे, तब आपोआप ही उनमें से नवजीवन की उषा प्रकट होगी। उसके वक्षोज कुम्भ से सोम की अमृत-सुरा प्रवाहित होगी। . .'
'मधुच्छन्दा का कोई नया छन्द सुन रहा हूँ, देवा!''
'ठीक सुन रहे हैं, आर्य ऋषभ। तप के प्रचण्ड घर्षण और आताप से ही सोमसुरा प्रकट होती है। तपस् ही अमृत का स्रोत है। आत्म-संयम से कण-कण को अभय करना होगा। भगवती अहिंसा ही सर्व को नवजीवन देने वाली उषा है। स्वयम् निरापद जियो, सर्व को निरापद जीने दो। स्वयम् अघात्य बनो, सर्व को अघात्य रहने दो। स्वयम् मृत्यु को जीतो, सर्व को मृत्यु से अमृत में ले चलो। पहले आत्म-मेध यज्ञ करना होगा, तब सर्वमेध उसमें से स्वयम् ही प्रतिफलित
होगा। ...
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