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'तुम्हारी हर हठ मैं पूरी करूँगा माँ । अपनी दी देह का मनचाहा शृंगार तो कर ही लिया तुमने । पर मेरा क्षात्रत्व तलवार की सीमा नहीं स्वीकारता । वह उसके आगे का है, शस्त्रातीत है । वही ले कर वैशाली जा रहा हूँ। क्या तुम चाहोगी कि मेरा प्रयोजन ही पराजित हो जाये ?
माँ निःशब्द इस पुत्र को पहचानती -सी देख रहीं। उनकी बड़ी-बड़ी आयत्त आंखों पर आरतियाँ-सी उजल उठीं। झुक कर मैंने तिलक धारण किया । माँ ने मुझ पर अक्षत फूल वारे । आँचल फैला कर ओवारने के लिए । माणिक की पायलों से मण्डित माँ के चरण-युगल में मैंने माथा ढाल दिया । उठा तो उनकी बाँहों में था, और सर मेरा उनकी ग्रीवा और कन्धे पर ।
• सिंहपौर पर अनवरत शहनाइयाँ, नक्काड़े, घण्टा और शंख बज रहे हैं। माँ की अगवानी में, राज-परिवार की केशरिया -वेशित रमणियाँ मंगलप्रस्थान के रोमांचक गीत गा रही हैं । सहसा ही जामुनी कौशेय में आवरित ऊषासी वैनतेयी सामने आयी । उसकी आँखों के नीर कितने दूरगामी लगे ! उनमें ट्रॉय की करुण-मुखी हेलेन गंगा स्नान करने आयी है उसका तिलक, श्रीफल, पुष्पहार झेलते एक अपूर्व रोमांच-सा अनुभव हुआ । ही गौर बाँहों पर उछलती फूल-मालाओं और पुष्प वर्षा और मुझे ढक दिया।
।
फिर तो जाने कितनी
ने
महाराज सिद्धार्थ को
तुमुल जयकारों के बीच, मैं आगे खड़े अपने त्रिभुवन - तिलक' रथ पर आरूढ़ हुआ। और उसके पीछे खड़े 'सूर्य ध्वज' रथ पर महाराज-पिता आरूढ़ हुए । ' पुष्प - पल्लव वितानों में डूबती गान-लहरियों को पीछे छोड़ते हुए हमारे रथ वैशाली के राजमार्ग पर धावमान थे ।
'बहुशाल चैत्य- कानन को पार कर, हम दक्षिण कुण्ड - ग्राम से गुजरे । वहाँ के स्वागत समारोह में सहसा ही एक पाण्डुर तापसी ब्राह्मणी ने आगे आकर जब मुझे पुष्प हार पहनाया, तो एक विचित्र पुलक-कम्प का अनुभव हुआ । उसके मुक्तकेशाविल आँचल की गन्ध जाने कैसी परिचित -सी लगी । भीतर के कान में जैसे किसी ने कहा : 'महाब्राह्मण, तुम आ गये ! ' 'ज्ञातृयों के समूचे कोल्लाग सन्निवेश में उत्सवी प्रजा की उमड़ती भीड़ और दर्शानाकुल आँखों में अपना अपनत्व हारता-सा अनुभव हुआ। फिर बागमती नदी के तटान्त से गुज़रते हुए हम ठीक वैशाली के राजमार्ग पर थे । शारदीय फूलों से लदी, यक-सा तरुमालाओं
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