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बजात-शत्रु काशेय, जनक विदेह और महाश्रमण पाश्वनाथ के रूप में यहाँ प्रजापति ने नया अवतार लिया है। इनकी ऊर्जस्वला मन्त्र-वाणी में ब्राह्मण-संस्कृति यहाँ श्रमण-संस्कृति में उत्क्रान्त हुई है। सत्, ऋत् और तपस् ने यहाँ अपने मर्म को प्रकाशित किया है। सकल घराचर के कण-कण में जो परब्रह्म व्याप्त है, वही सत् है। सर्व के पति आप्तभाव, अणु-अण में अपने को देखना, वही ऋत् है। यही परम नियम है। उसके अनुसार सर्वत्र अप्रमत भाव से विचरना, सत्ता मात्र के प्रति अहिंसक माचरण : आत्मनः प्रतिकूलानी परेषां न समाचरेत्' : यही तपस् है।
• • ‘स्पष्ट प्रतीति हो रही है, लोक और परलोक के दैहिक सुख-भोगों की प्राप्ति के लिए यज्ञ नहीं है । वह जड़त्व है । निरन्तर श्रम के तपस् द्वारा, देह को श्रान्त कर, परमतम में विश्रान्त हो जाना है। वही एकमात्र अविनाशी सुख है। श्रम के संघर्ष से ही सोम प्रकट होकर, प्राण को अमृत से आप्लावित कर देते हैं। · इसी से कहती हूँ, आत्माहुति का यज्ञ करो : उसो से अविनश्वर श्री और सविता प्राप्त होते हैं। 'नाना श्रान्तस्य श्रीरस्ति। पापो नृषद्वरो जनः । इन्द्र इच्चरतः सखा । चरैवेति चरैवेति !' "निरन्तर चलते रहो, चलते रहो : जो चलता रहता है, उसके पाप क्षीण होकर झर जाते हैं, उसे श्री प्राप्त होती है, और सर्व ऐश्वर्यों के प्रचेतस् अधिष्ठाता इन्द्र से मित्रता प्राप्त होती है। 'सूर्यस्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन्' : अरे सूर्य की श्रम-लक्ष्मी को देखो, तन्द्राहीन भाव से वह निरन्तर चलता रहता है। इस तरह ऐहिक और पारलौकिक सुखों की लिप्सा से जड़ीभूत हो गये ब्राह्मणत्व को, इस पूर्वांचल में, श्रम के तपस् द्वारा, निरन्तर गति-प्रगति का नया उद्बोधन प्राप्त हुआ है। देवाधिदेव अग्नि ने साक्षात् अवतरित होकर, यहाँ मित्रावरुण का भाव प्रकट किया है, और यावत् प्राणि-मात्र को अभय का आश्वासन दिया है। महाश्रमण पार्श्व ने कहा था : 'मिती मे सम्व भूतेषु' : 'मैं सर्व भूतों का मित्र हूँ! . . .' ___ पर कल संध्या में मामा भवदत्त कुरु-पांचाल से लौटे हैं। उनसे जो वृत्त सुना है, उससे सारी रात सो नहीं सकी हूँ। कुरु-पांचाल में सर्वमेध यज्ञ चल रहा. है । एकबारगी. ही सौ-सौ अश्वों, गौओं, वृषभों, भेड़-बकरियों की आहुति दी जाती है और फिर एक बारगी ही कई सर्वांग सुन्दर मानवों को होमा जाता है । चीत्कारते पशुओं और मानवों के आक्रन्दन से अन्तरिक्ष विदीर्ण हो रहे हैं, भूगर्भ काँप रहे हैं। जिस क्षण से सुना है, मेरे गर्भ में बिजलियां कसमसा रही हैं। शरीर में रहना कठिन हो गया है। हजारों प्राणियों की वे 'त्राहिमाम्' पुकारें, मेरे भीतर नाड़ियाँ बन कर व्याप गयो हैं। उनसे भिन्न अपने प्राणों को सुरक्षित रखने की कोई जगह, अवकाश में नहीं पा रही हूँ।
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