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हैं। कोई भी शासन-तंत्र लाखों-करोड़ों प्रजाजन की सुरक्षा के लिए ही तो नियोजित होता है। उसे भी तुम न्यायसंगत नहीं मानते ?'
'मुझे तो नहीं दीखता, भन्ते राजन, कि शासन, सैन्य, शस्त्र, दुर्ग और क़ानून प्रजा के लिए हैं। उनके तल को टटोल देखिये, तो साफ दीखेगा कि ये सारे राज्यतंत्र, और इनके अंगभूत सुरक्षा-साधन, फिर चाहे वे राजतंत्र हों या गणतंत्र के हों, प्रजा की रक्षा के नाम पर, वे प्रथमतः और अन्तत : शासक और श्रीमंत वर्गों की सत्ता और सम्पदा की सुरक्षा पर नियोजित रहे हैं । तीर्थंकर ऋषभदेव, रघु, भरत, और राम आदि के राज्य इसके अपवाद ही कहे जा सकते हैं। क्योंकि ये शलाका पुरुष मूलतः अपनी चेतना में ही अपरिग्रही और सर्वस्व-त्यागी थे। बाक़ी तो सारे राजत्वों का इतिहास मुझे तो शासक और धनिक वर्गों के स्थापित-स्वार्थों की सुरक्षा का इतिहास ही दीखता है।' ___ 'इसके माने तो यह हुए कि राज्य में तुम्हारा विश्वास नहीं। पर यह तो तुम भी मानते हो, कि यह जगत बलवानों की आपाधापी का जंगल है। राज्य ही न रहे तो इस अराजकता की पराकाष्ठा हो जायेगी। मनुष्य-मनुष्य को फाड़ खायेगा।'
'यह सच है, भन्ते तात, कि मनुष्य, मनुष्य को फाड़ न खाये, इसी स्थिति से उबरने के लिए राज्य अस्तित्व में आया । पर यह राज्य-संस्था भी क्या उस अराजकता से मनुष्य का त्राण कर सकी ? परस्पर फाड़ खाने की जंगल-नीति व्यक्तियों के स्तर से उठ कर, सामूहिक स्तर पर अवश्य आ गयी है । इस बर्बरता ने अधिक सूक्ष्म होकर, सभ्यता के कपड़े पहन लिये हैं । सभ्यता के दौरान पारस्परिक मारफाड़ और शोषण ने अधिक संगठित रूप धारण किया है। उसने पहले से अधिक घातक और विषैले शस्त्रों का आविष्कार किया है। पहले एक-दूसरे को मारता था, एक-दूसरे से भय खाता था । अब तो लक्ष-लक्ष मानव-समूह, ना कुछ समय में लक्ष-कोटि प्रजाओं का संहार कर देता है । राज्य-संस्था द्वारा अराजकता किचित् भी मिटी नहीं, महाराज, वह अधिक सूक्ष्म, भयंकर और सत्यानाशी हो उठी है । युद्ध और आयुध, कला और विज्ञान बने हैं : वे नैतिकता, राजनीति, कूटनीति के नाम पर कपट-कौशल बन कर, धर्म और प्रजा-पालन की आड़ में, भयंकरतम सर्वसंहार की ओर प्रगति कर रहे हैं।' _ 'तो तुम, वत्स, राज्य और शासन के मूलोच्छेद में विश्वास करते हो ? राज्य में तुम्हारी कोई निष्टा नहीं ?'
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