SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१७ - चढ़ कर वे महारानियों और वारवनिताओं के रूप-राज्य की मोहिनी को भयंकर से भयंकरतर बनाते हैं । ... ___पर वर्द्धमान, उन्नत प्रजाएँ सदा ही भौतिक समृद्धि के शिखरों पर पहुँची हैं। तुम हमारे इस राष्ट्रीय उत्कर्ष को अनिष्ट मानते हो ? वह तो हमारे समस्त जनगण के उत्कृष्ट ऐहिक कल्याण का साधन है। जनगण के इस उत्कर्ष को . .' 'इसमें जनगण का कोई उत्कर्ष नहीं, महाराज ! बेशक गणराजाओं के उत्कर्ष की कोई सीमा नहीं ! हमारे इस नन्द्यावर्त प्रासाद का यह स्वर्गिक वैभव, इस मंत्रणा-गृह की ये सुगंधित रत्न-यवनिकाएँ इसका प्रमाण हैं, पितृदेव !' . सुन कर पिता और मातामह को जैसे तहें काँप उठी हों । वे कुंचित भौंहों से अपने इस बागी बेटे को सन्देह की दृष्टि से देख उट। ____ ‘पर इस राष्ट्रीय उत्कर्ष का लाभ अन्ततः तो सारे जनगण को पहुँचता ही है।' 'हाँ, मक्खन-मलाई शासक और श्रेष्ठि बटोर लेते हैं, फिर बचा हुआ निःसत्व दूध तो बेशक गण के हर जन तक पहुँचता ही है। हम समर्थों के भोगों की खुर्चन-खार्चन और जूटन भी इतनी तो होती ही है, कि उसे पाकर भी प्रजाएँ अपने धन्य भाग्य मानती हैं । ' - 'मैंने देखा है, महाराज, ये जनगण महान् हैं। जो पाते हैं, उसी से सन्तुष्ट हैं। निर्लोभ, निरासक्त, निग्रंथ हैं। कुल राजाओं और श्रेष्ठि श्रावकों से, इन श्रमिकों की आत्माएँ उच्चतर हैं। उनका चारित्र्य, अभिजात वर्गों से श्रेष्ठतर और उत्कृष्टतर है। श्रमणों के धर्म को, सच पूछो तो, मैंने इन्हीं अकिंचनों में जीवित देखा, वैशाली के महालयों में नहीं।' 'हमारे गण में कोई अभावग्रस्त नहीं, वर्द्धमान ! प्रचुर मात्रा में अन्नवस्त्र, जीवन-साधन सबको सुलभ हैं।' 'अभाव निश्चय ही नहीं है। पर दैन्य है, दारिद्रय है, ग़रीबी है। धनी और निर्धन के बीच की खाई बहुत बड़ी है। कुछ लोग लोक के सारे धन का अपहरण करके बड़े और धनी बने हैं। फलतः शेष जन छोटे और दीन हुए हैं। उन्हें निर्धन और दीनहीन रखने में ही दन धनियों और राजाओं का अहंकार तुष्ट होता है। जैसा कि कल भी मैंने कहा था, मानवों और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy