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में, कि अलग से विनय करने तक का भान रहा । एकाग्र उन्हें निहार रहा था, कि सुनायी पड़ा :
'सुनता है मान, वैशाली से चन्दना आयी है । तेरी छोटी मौसी चन्दन ।' 'बहुत अच्छा · · !' 'तुझसे मिलना चाहती है।' 'कौन माँ · · ?' 'कहा न, चन्दना · · !' 'ये कौन हैं, माँ ? . . .' 'कहा न तेरी चन्दन मौसी ! कितनी ही बार तो तुझे उसके विषय में बताया है।' 'अच्छा-अच्छा - हाँ हाँ हाँ ! तो ये कहाँ से आयीं हैं ?' 'तू तो कभी कोई बात पूरी सुनता नहीं । कहा न, वैशाली से आयी है।' 'बहुत अच्छा . . . !' 'हर बात का एक ही उत्तर है तेरे पास-बहुत अच्छा !'
'सो तो सब अच्छा है ही, माँ ! है कि नहीं ? असल में आज तुम कितनी अच्छी लग रही हो, यही देख रहा था ! . . .'
क्षण भर एक सभर मौन हमारी परस्पर अवलोकती आंखों के बीच छाया रहा । उसमें से उबरती-सी वे बोली :
'तो लिवा लाऊं चन्दना को, यहाँ तेरे पास ?' 'अ' - 'हाँ, वे आयें । अनुमति से क्यों, अधिकार से आयें । मुझे पराया समझती हैं ?-दूर मानती हैं क्या?'
‘पर तू किसका अपना है, और किससे दूर नहीं है, यह तो आज तक कोई जान नहीं पाया !'
'बहुत अच्छा ! • • “तुम्हारे सिवाय यह कौन जान सकता है, अम्मा ? · · हाँ, तो आज्ञा दो माँ !'
'तो लिवा लाऊँ चन्दना को ?' 'अरे तुम क्यों कष्ट करोगी माँ । बस, वही आ जाएँ !' और माँ एक निगाह , मुझे ताक कर चली गयीं।
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