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________________ १७५ में रख दिये। उनमें अपने नाम का ममत्व नहीं, केवल समवेत गान का उल्लास था। ये आदि मन्त्र-द्रष्टा कवि थे। अनन्त विराट् प्रकृति के विविध सौन्दर्यो से भावित हो कर इन्होंने अपने उद्गीथों में एक समग्रात्मक बोध व्यक्त किया। यह प्राण-पुरुष का उद्गायन है। क्रमशः इनमें प्राण से मनस् की ओर विकास दीखता है। 'अघमर्षण को आरम्भ में, केवल एक अज्ञात घटाटोप तमस में से, जल का आविर्भाव होता दीखा । जल के विविध वस्तु-रूपों में प्राकट्य का कारण खोजते, वे काल-बोध तक पहुँचे : सम्वत्सर, ऋतु, मास । वैविध्य और परिवर्तन के कारण की खोज में, वे तपस् पर पहुँचे । यों जल में से अग्नि, और अग्नि में से सूर्य तक आये। सम्वत्सर पर पहुंचे तो उन्हें लगा कि उसी से यथाक्रम-सूर्य, चन्द्रमा, द्यावा, पृथ्वी, आकाश, प्रकाश आविर्भूत हुए । दिन-रात हुए । उस काल पुरुष में से ही जीवन और मृत्यु भी आये । इस तरह काल तक पहुँच, उनके हाथ ऋत् भी लगा । अर्थात् उन्हें विश्व-प्रक्रिया में कोई निश्चित् अधिनियम और क्रम भी काम करते दीखा। 'प्रजापति परमेष्ठिन् की जिज्ञासा ने आगे बढ़ कर प्रश्न उठाया कि-सत, सत् में से आया है कि असत् में से? सत्ता के पूर्व शायद कुछ न रहा हो, शून्य ही रहा हो। वे चक्कर खाकर यहाँ आये कि आदि में न सत् था, न असत्, न अस्ति, न नास्ति । · · बस, जाने कहाँ से 'गहनम् गंभीरम्' जल उमड़ता दीखता है। है न यह ऋषि निरा कवि, सोम ? केवल एक प्रत्यक्ष बोध से भावित। इस जल में ही स्वतः स्फूर्त काम उत्पन्न हुआ । इस अकारण आदिम ईहा में से ही उनके हाथ मनस् आया। और इस मनस् में से उन्हें आद्य चैतन्य झाँकता दीखा । सो आदि कारण में इस प्रकार चैतन्य की परिकल्पना विकसती दीखती है। ___'ब्रह्मनस्पति ने इस आदि ईहा या काम को अनन्त देखा, सो उसके कवि ने उसे अदिति कहा : आद्या माँ । देख रहे हो न, भटकते पुरुष ने किसी अलक्ष्य माँ में शरण खोजी । यहीं कहीं, निरी प्रकृत ईहा या काम, प्रेम की उदात्त भाव-चेतना में विकसित होता दीखता है। · · फिर अदिति में से दक्षा जन्मी : दक्षा में से अदिति जन्मी : देखा न, उद्गम और विकास सपाट रेखा में हाथ नहीं आते : चक्राकार परिणमन में परिभाषित होते हैं । ब्रह्मनस्पति ने अदिति यानी अनन्त को पृथ्वी से पार के आकाश में अवश्य देखा : मगर दिशा, क्षितिज और काल में बद्ध देखा। प्रत्यक्ष ऐन्द्रिक अनुभव से परे इस आद्या अनन्तिनी को उन्होंने अमर, अविनाशी कहा। अमरत्व की प्यास जागी। और उसे विश्वाधार मान कर, जीवन गन्तव्य में भी उन्हें अमृत दीखा । .. 'आगे दीर्घतमस अन्ततः किसी एकमेव, अखण्ड, सम्पूर्ण, स्वाधारित, स्वनिर्भर तत्व तक पहुँचे । जो अक्षय्य शक्ति का स्रोत है, अनन्त, अमर, अविनाशी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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