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'प्रमद - कक्ष
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में ही रहोगी तुम !
'उस अपार वैभव के बीच, अकेली ? '
'साम्राज्ञी अकेली ही रहती है !'
'और वहाँ दूर रह कर, स्वामी की क्या सेवा होगी मुझ से ?'
'कुछ न करो । बस रहो अपने में, नित्य सुन्दरी, और अपने सौन्दर्य को अधिकाघिक पहचानो | इससे बढ़ कर मेरी कोई सेवा नहीं। इससे अधिक कुछ करणीय नहीं ! '
' दर्शन देते रहोगे न ? और अनुज्ञा हो तो, दर्शन करने आ जाया करूँ ! 'अनावश्यक है वह, वैना, तुम्हारे लिए । वह दूरी रक्खोगी, तो व्याकुलता बनी रहेगी । आँखों से देखने की प्यास, दूरी नहीं तो क्या है ?"
'नाथ ·!'
'सदा पास रहो, अपने, सो मेरे भी । तब, अनचाहे भी, चाहे जब, मुझे सम्मुख पाओगी ।'
'कृतार्थ हुई, देव !'
'और सुनो, तुम्हारे दर्पण में, अब शतसहस्र विद्याएँ प्रकट होंगी । निर्भय और अविकल्प उसमें निहारना । भीतर की सब ग्रंथियाँ खुलती चली जायेंगी । मैं तुम्हें आर-पार प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, इस क्षण
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!'
'कैसी हूँ, 'नाथ ?'
'मुझ से क्यों पूछती हो ? अपने दर्पण से पूछो ! 'आप्यायित हुई, भगवन् ! '
कुमारी की वे दोनों नीलोत्पला आँखें सजल हो, पूरी मुझ पर खुल आयीं । समुद्र-संतरण का आवाहन था उनमें। फिर अपने जानु-ग्रथित आसन से ही झुक कर उसने दोनों हाथ पसार कर, मेरे चरणों पर ढाल दिये । और चुपचाप उठ कर, धीरे-धीरे चली गई ।
वैनतेयी, तुम्हारे रहस्य का पार नहीं ।''
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