SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 'प्रमद - कक्ष १५९ में ही रहोगी तुम ! 'उस अपार वैभव के बीच, अकेली ? ' 'साम्राज्ञी अकेली ही रहती है !' 'और वहाँ दूर रह कर, स्वामी की क्या सेवा होगी मुझ से ?' 'कुछ न करो । बस रहो अपने में, नित्य सुन्दरी, और अपने सौन्दर्य को अधिकाघिक पहचानो | इससे बढ़ कर मेरी कोई सेवा नहीं। इससे अधिक कुछ करणीय नहीं ! ' ' दर्शन देते रहोगे न ? और अनुज्ञा हो तो, दर्शन करने आ जाया करूँ ! 'अनावश्यक है वह, वैना, तुम्हारे लिए । वह दूरी रक्खोगी, तो व्याकुलता बनी रहेगी । आँखों से देखने की प्यास, दूरी नहीं तो क्या है ?" 'नाथ ·!' 'सदा पास रहो, अपने, सो मेरे भी । तब, अनचाहे भी, चाहे जब, मुझे सम्मुख पाओगी ।' 'कृतार्थ हुई, देव !' 'और सुनो, तुम्हारे दर्पण में, अब शतसहस्र विद्याएँ प्रकट होंगी । निर्भय और अविकल्प उसमें निहारना । भीतर की सब ग्रंथियाँ खुलती चली जायेंगी । मैं तुम्हें आर-पार प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, इस क्षण I !' 'कैसी हूँ, 'नाथ ?' 'मुझ से क्यों पूछती हो ? अपने दर्पण से पूछो ! 'आप्यायित हुई, भगवन् ! ' कुमारी की वे दोनों नीलोत्पला आँखें सजल हो, पूरी मुझ पर खुल आयीं । समुद्र-संतरण का आवाहन था उनमें। फिर अपने जानु-ग्रथित आसन से ही झुक कर उसने दोनों हाथ पसार कर, मेरे चरणों पर ढाल दिये । और चुपचाप उठ कर, धीरे-धीरे चली गई । वैनतेयी, तुम्हारे रहस्य का पार नहीं ।'' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only O www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy