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'माँ को पा कर उन्हें कामदेव सिद्ध हुए। माँ का विछोह होने पर, उनकी विरह वेदना में प्रज्ञा जागी, और उन्हें गरुड़ दर्शन हुआ । मोक्ष के लिए, उन्होंने पृथ्वीत्याग न स्वीकारा । अटल रहे संकल्प पर, कि पृथा ही को पूर्णकाम होना पड़ेगा। तब उन पर शक्ति-संयुक्त शिव प्रसन्न हुए । शिवानी ने उन्हें गोद में धारण किया। · · ·और यह कल्प-दर्पण उन्हें प्रदान किया, जो मेरे पास है . . .।'
'और तुम्हें ?'
'पितृदेव ने मुझे मन्त्र-दर्शन कराया। नासमझ थी। उसी अबोधता में मेरे कुमारी-हृदय में अपनी विद्या-सिद्धि को प्रतिष्ठित कर दिया ।'
'तुमने काम, गरुड़ और शिव का दर्शन पाया ?' 'मेरे रोम-रोम में वे एकत्र संचारित हुए।' 'धन्य हो वैना ! संकरी ही शंकरी हो सकती है । फिर ?'
'पितृदेव ने कहा था, कौमार्य के भीतर ही यह परम विद्या अक्षुण्ण रह सकेगी। वैनतेयी नाम देकर उन्होंने मुझे प्रज्ञा के माध्यम से एक साथ काम और पराकाम शिव का दर्शन कराया था।'
'लोक में अनन्या हो तुम, कल्याणी । फिर ?'
'एक दिन अचानक, पिता ने सावधान किया, कि उनका शरीरान्त निकट है। मुझे संकटों में अकेले जूझना होगा । पर विद्या सदा कवच हो रहेगी। प्राण-पण से उसकी रक्षा करना । तब एक दिन परित्राता आयेंगे !'
वना की आँखें कृतज्ञता के भार से झुक गईं । उसका बोल रुंध गया। 'तथास्तु वैना · · · ! फिर ?'
'अनाथिनी कन्या को संकर जान कर, ब्राह्मणों ने उसे अवमानित किया, उस पर अत्याचार हुए। • यज्ञ की बलि वेदी से वह भाग छूटी। · ·आश्रयदाता श्रेष्ठी की मनोकामना को उसने ठुकरा दिया। तब उज्जयिनी के पण्य में दासीव्यापारी के हाथ वह बिकी । उज्जयिनी की महारानी शिवा देवी, आपकी मौसी, एक दिन रथारूढ़ होकर राजमार्ग से जा रहीं थीं। उनकी निगाह उस पर पड़ गई। - ‘कृतज्ञ हूँ उनकी, उन्होंने तत्काल मुझे क्रय कर लिया। उनकी सेवा में, मां के आँचल-सा आश्रय मिला ।'
'शिवा मौसी का आभारी हूँ, वैना ! फिर ?'
'अब तो समक्ष हूँ ही। प्रियकारिणी माँ ने मुझे देखा । परिचय पा कर वे अनुकम्पा से भर उठीं। महारानी शिवा देवी से अनुरोध कर यहाँ लिवा लाईं !'
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