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________________ में एकता नहीं है। समत्व और सम्यक्त्व भीतर है, तो बाहर के जीवन और समाज में वह प्रकट क्यों नहीं होता ? वह धर्म मतक के क्रियाकाण्ड के समान है, जो जीवन में प्रकाशित नहीं, मानव-सम्बन्धों में व्याप्त नहीं होता। 'जीवो जीवस्य जीवनं' की जंगली चेतना से ने महाजन और ऋषि-वंश क्या तनिक भी ऊपर उठ सके हैं ? क्या पश-जगत और बर्बरों की बलात्कारी शक्तिमत्ता ही, आज भी उनकी धार्मिक और सामाजिक व्यवस्था के मूल में अक्षुण्ण रूप से जीवित नहीं है ! : सहस्राब्दियों के दौरान जाने कितने ही मन और कूलकर आये । कर्मभूमि के आदिब्रह्मा तीर्थंकर ऋषभदेव ने भोगयुग की मोहान्ध तिमिर-रात्रि को समाप्त कर कर्म, शिल्प, तप और ज्ञान की पुरुषार्थी संस्कृति का शलाकान्यास किया । उनके पदानुसरण में युग-युगान्तरों में कितने ही तीर्थंकरों और शलाका-पुरुषों ने, अभी कल के महाश्रमण पार्श्वनाथ तक, सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह के चातुर्याम धर्म पर, बारम्बार मानव-कुलों को प्रतिष्ठित करने का महाप्रयत्न किया। पर देख रहा हूँ, कुत्ते की दुम वहीं की वहीं पर है । बारम्बार ज्ञान जब निरा बुद्धि-मानसिक विलास बना और वह बलवानों के प्रमत्त शोषण का हथियार बना, तो लोकशीर्ष पर महासूर्यों की तरह उदय होकर, कई महाश्रमणों ने श्रम और आत्मत्याग द्वारा, ज्ञान को प्रतिपल जीवनाचरण में उतारने का महाप्रयास किया। कैवल्य, मोक्ष, धर्म और तीर्थंकरों की जयजयकारों से आकाश थर्राये। पर लोक-जीवन की धारा में श्रमणों की आचार संहिताएं भी, निपट रूढ़ि-पालन होकर रह गयीं। ___ महाश्रमण पार्श्व को हुए अभी कुल ढाई सौ वर्ष बीते । कहां गया उनका धर्म-चक्र प्रवर्तन । केवल कुछ चैत्यों में, अरिहन्तों की रत्न-प्रतिमाओं में जड़ीभूत होकर रह गया ! बेशक वैशाली के चूड़ामणि लोकतंत्र में उनके श्रमण-धर्म की जय-पताकाएं आज भी उड़ रही हैं । अवन्ती, कौशाम्बी, काशी-कोशल, चम्पा और भगध के जनपदों में अभी भी उनके अर्हत्-मार्ग को अनेक स्वच्छन्द रूप देकर, कितने ही स्वनाम-धन्य तीर्थक् विचर रहे हैं। अनेक योद्धा, सामन्त, राजकुल और श्रेष्ठिकुल उनके जिन-शासन के अनुयायी हैं। पर उनके बताये अणुव्रतों और महाव्रतों के थोथे आचार-पालन के सिवाय, क्या उनके उज्ज्वल आत्मधर्म का आज के जीवन से कोई संबंध शेष रह गया है ? यदि वह श्रमण-धर्म उनके म नि-संघों और श्रावकों में जीवित होता, तो क्या वर्तमान आर्यावर्त के पांच-पांव महाराज्यों में जिनेन्द्र-कन्याओं के महारानियां होते, यहाँ की समाज-व्यवरथा ऐसी बलात्कारी रह सकती थी ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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