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________________ के उद्यानों, एथेन्स के महलों और नील नदी के तट-कुंजों में विहरते प्रणयीजनों का सम्मोहन - जाल बुनती हैं । एक तन्तुवाय को लक्ष्य कर मैंने कहा : १३० 'देवता, मोटा-झोटा पहन कर, किसके लिए ऐसा दारुण श्रम करते हो ?" 'देवता कहकर हमें लज्जित न करें, बेवार्य ! हमीं देवता होंगे, तो हम किसे देवता कह कर धन्य होंगे ? ' 'तुम भी देवता ही हो, भन्ते, सो चाहे तो मुझे भी कह लो । परस्पर देवोभव ! हम परस्पर एक-दूसरे के देव ही हैं, शिल्पी । मैं तो केवल विश्वद्रष्टा हो कर रह गया, तुम तो विश्वकर्मा हो । अपनी उँगलियों पर ब्रह्माण्डों के जाल बुनते हो ।' सारे तन्तुवाय चकित - मृग्ध, प्राणिपात में झुक गये । उनका बोल न फूट बाया । उन्होंने एक महार्घ स्वर्णतार कौशेय मुझे भेंट किया। मैंने वह खोल कर, उन्हीं सब पर डालते हुए कहा : 'महावीर वर्द्धमान वसन से ऊब गया । वैशाली के राजकुमार को इस क्रीत माता से विरति हो गई है, शिल्पियो ! जिस दिन इनका बुनकर उन्हें धारण करेगा, उसी दिन ये मेरा सम्मान हो सकेंगे ।' वैशालीपति ! जय हो, जम हो, धन्य माग ! हमारे जन्म कृतार्थ 'देवार्य हो गये ।' मैं एक मुस्कान से उन सब का अभिषेक करता हुआ अपनी राह पर आगे बढ़ गया । दूर से ही दहला देने वाले घनों की आवाजें सुनकर मैं एक काली धुंआली लगती बस्ती की ओर बढ़ गया । यह कम्मारों का ग्राम था । ये लोह और फौलाद के शिल्पी थे । इनकी विशाल कर्मशाला को देखकर मैं स्तम्भित रह गया। आग की खदानों जैसी वृहदाकार भट्टियों में, कई लपलपाती जीभोंसी ज्वालाएँ, होमाग्नियों को चुनौती देती-सी उठ रही थीं । कच्ची लोह चट्टानों को इनमें गला-गला कर, शिलाओं के बड़े-बड़े कुण्डों में ढाला जा रहा था । पर्वतों के वज्र को अपने श्रम की आँच से तपा कर, ये कम्मार उन्हें अपनी भीमाकार निहाइयों पर, बड़े-बड़े घनों से पीटकर पिण्डों और पतरों में मनचाहा गढ़ रहे थे । इनकी रक्तारुण आँखें जैसे चिनगारियों से ही बनी थीं, और इनकी स्वेद से नहायी पट्ठेदार भुजाओं में जैसे पर्वतों ने आत्मार्पण कर, काठिन्य और लचाव का एक अद्भुत सम्मिलित स्वरूप उपस्थित किया था । फावड़े -कुदाली, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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