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________________ १०७ 'कई दिन और रात विद्याधरराज वासुकी के साथ उन हिमानियों में विचरते कैसे बीत गये, पता ही न चला। अनादिकाल की मुद्रित हिम-कन्दराओं के वज्र-कपाटों पर अपने वीर्य को जूझते, टकराते, परीक्षित होते देखा । कितनी मेखलाएँ छिन्न हुईं, कितने पटल बिद्ध हुए, कितनी गहराइयों में मैं संसरित हुआ ! अनिर्वच है उस यात्रा की मर्म - कथा । लौट कर एक सन्ध्या में, जब नन्द्यावर्त - प्रासाद के अपने आवास - खण्ड में प्रवेश किया, तो पहचानना कठिन हो गया कि क्या यही मेरा निवास भवन है ? वैशाली के विदेहों का तमाम परम्परागत वैभव और ऐश्वर्य मानो वहाँ एक साथ एकत्रित था । छतों में लटकी वृहदाकार नीलम और पन्नों की झूमरों में, फुलैलों के प्रदीप उजल रहे थे । पद्मराग शिलाओं की फर्श पर, पारस्य देश के गलीचों में, रम्य वनों में सर्पों से खेलती सुन्दरियाँ चित्रित थीं । रत्न- मीना- खचित दीवारों में, अनेक रंगी मणिचूर्णों के रंगों से, केलिविलास की अद्भुत् चित्रमालाएँ अंकित थीं । जगह-जगह बैठी जाने कितनी ही अनिन्द्य सुन्दरी बालाएँ, सुगन्धित धूपों और मदिराओं से केश-प्रसाधन कर रही थीं। कहीं अन्तरित कक्षों के भीतर से विचित्र तंतुवाद्यों की महीन झंकृतियों में मन्थर संगीत की मूर्छाएँ बह रही थीं। और उन पर नुपूरों की मृदुतम घुंघुर ध्वनियों में नर्तित चरणों की कोमलता नित नये आकारों में उभर रही थी । 'मेरे आगमन का आभास पाते ही, अपने-अपने स्थानों पर वे सारी सुन्दरियाँ प्रणिपात में निवेदित हो गईं। फिर संगीत और नृत्यों में उत्सव और स्वागत की सुरमालाएँ उठने लगीं। मैं सीधे, प्रतिहारी द्वारा संकेतित अपने निज कक्ष में चला गया । 1 अपनी विशेष प्रतिहारी से मैंने इस जादुई परिवर्तन के विषय में जिज्ञासा की । उसने बताया कि मेरी अनुपस्थिति में महारानी त्रिशला देवी, रात और दिन चारों दिशाओं में अपने प्रभंजन - वेगी रथों पर यात्राएँ करती रही हैं । कुण्डपुर का सारा गृह-मंत्रालय इस नये आवास भवन की साज-सज्जा के लिए कई देश - देशान्तरों की तहें छानता फिरा है । अवन्ती की पण्य-वीथियों से क्रय की हुई, अनेक सुदूर देशों की दुर्लभ वस्तु-निधियाँ और सामान असबाब नित्य, गंगा-यमुना की राह कौशाम्बी, श्रावस्ती और चंपा के घाट बन्दरों पर उतरते रहे हैं : और वहाँ से गाड़ियाँ लदलद कर कुण्डपुर आती रही हैं। पश्चिमी समुद्र के पट्टनों पर से बाबुल, असीरिया और मिस्र की नील नदी के दुर्मूल्य उपहार विशाल करण्डकों और वृहदाकार मंजुओं में भर कर आते थे । गांधार की राह, सिन्धु सौवीर के पट्टन से, सुदूर पश्चिमी देशों के अंशुक, मखमल, इत्र- फुलैल, सुगंधित द्रव्य, और अचिन्त्य रत्न - शिलाएँ लाई गई Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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