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________________ १०५ लिए दो नगाड़े बनवा दिए थे । आक्रमणों के समय उनके प्रताड़न घोष से योजनों की दूरी पर आ रहे आक्रामक शत्रु भयभीत होकर भाग निकलते थे । इसी वृहद्रथ के नाम से 'बार्हद्रथ' वंश की स्थापना हुई । इसी बृहद्रथ के प्रचण्ड प्रतापी पुत्र जरासंध ने मथुरा तक के तमाम भारतीय जनपदों पर आधिपत्य स्थापित कर, मगध में सबसे पहले कराट् साम्राज्य की नींव डाली । मथुराधीश कंस इसका जामाता था, और चेदिराज शिशुपाल इसका सेनापति । जरासंध जब साम्राज्यलिप्सा से प्रमत्त हो उठा, और आर्यावर्त की अनाचारी राजसत्ताएँ उससे बल पाकर नग्न विलास और नृशंस अत्याचारों पर तुल गईं, तो सिंहासन-भंजक वासुदेव कृष्ण ने जरासंध को मार कर पूर्व से पश्चिम तक की भारतीय प्रजा को आतंक - मुक्त कर दिया । अभी सौ वर्ष पूर्व फिर यहाँ राजा शिशुनाग ने अपने पराक्रम से शैशुनाग वंश की नींव डाली। उसी की पाँचवीं पीढ़ी में आज महाराज बिबिसार श्रेणिक ने, कोसल, काशी, कौशाम्बी और अवन्ती तक अपनी धाक जमाकर नये साम्राज्य के निर्माण का सूत्रपात किया है । उदात्तमना बिंबिसार के इस मगध में ब्राह्मण और श्रमण समान रूप से समाद्रत हैं । ब्राह्मण उसकी छत्र-छाया में निर्बाध श्रोत यज्ञ करते हैं : और स्वतंत्र चेता, दुर्द्धर्षं तपस्वी श्रमणों की धर्मदेशना श्रेणिक बड़े आदर भाव से सुनता है । विपुलाचल की छाँव में वर्तमान के अनेक शास्ता मुक्त भाव से प्रवचन करते विचर रहे हैं । इस भूमि पर अनेक साम्राज्य उठे, अनेक सम्राटों ने अपने दुर्दण्ड वीर्यं - तेज से पृथ्वी के गर्भ हिलाये । सिंहासन बार-बार उठ कर मिट्टी में मिल गये, ऋषियों ने अपनी तपस्याओं, और ज्ञान सत्रों से इसकी गिरिमालाओं को गुंजायमान किया । पर क्या बात है कि धर्म का अविचल सिंहासन इस पृथ्वी पर नहीं बिछ सका । सृष्टि उत्थान-पतन के चक्रावर्तनों से उबर नहीं पा रही | कहाँ है अहर्त, जो अहम् के इन धृष्ट दुश्चक्रों को अपनी तेज-शलाका से भेद कर, सोहम् के शाश्वत धर्म का सुमेरु पृथ्वी पर स्थापित करेगा ? 'विपुलाचल पर प्रचण्ड से प्रचण्डतर प्रताप के साथ सूर्य उद्योतमान हो रहे हैं । उनके शीर्ष पर, एक महाशंख का अनहदनाद सुन रहा हूँ। एक अपूर्व क्रान्ति और अतिक्रान्ति का शंख नाद, कि सृष्टि का प्रत्येक अणु-परमाणु अपना रहस्य खोलने को अकुला उठा है । कहाँ छुपा है त्रिकालाबाधित ज्ञान का वह सर्वज्ञ - सूर्य ? 'मेरे वक्ष में जैसे अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड नवजन्म लेने को कसमसा रहे हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003845
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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