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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
चाहे वह ध्वनि विस्तार के यन्त्र के प्रयोग का मामला हो या समाज में व्याप्त शिथिलाचार का अथवा अन्य किसी विषय का। 'सिद्धान्त सर्वोपरि है', यही
आपके जीवन का प्रमुख ध्येय था। ऐसे अनेक प्रसंग उपस्थित हुए जब आप पर वर्तमान हवा के रुख को देखकर समय के साथ परिवर्तन करने हेतु दबाव भी आये, परन्तु आप किंचित मात्र भी नहीं हिले ।
वैसे तो आपका सम्पूर्ण जीवन ही त्याग और तपोमय था परन्तु आपका संध्याकाल अपने पूर्ववर्ती साधनाकाल से भी कहीं अधिक उजागर निकला। अपने अंतिम समय में संथारा ग्रहण कर समाधि मरण को प्राप्त कर आपने अपने पीछे जो स्थायी यादगार छोड़ी है, वैसी संभवतया पिछली कुछ सदियों में किसी भी प्राचार्य ने नहीं छोड़ी। यह आपकी अध्यात्म साधना का ही फल था कि संथारे की अवधि तक मुसलमान बन्धुओं ने पशुवध व कत्लखाने बन्द रखे । किसी के समझाने पर सम्भवतया ऐसा हो पाता या नहीं परन्तु यह आपकी आध्यात्मिक शक्ति का ही फल था कि हिंसक व्यक्तियों ने भी अहिंसा का मार्ग अपनाया। मानव ही नहीं पशुओं के प्रति भी आपके प्रेम व स्नेह ने नागराज का भी मन जीत लिया और कहते हैं कि वह नागराज आपके अंतिम दर्शनों हेतु निमाज में उपस्थित था।
हमने अरिहन्तों को नहीं देखा, सिद्धों को नहीं देखा परन्तु आचार्य भगवन् में हमने अरिहन्तों व सिद्धों को प्रतिबिम्बित होते देखा है। महापुरुष किसी एक व्यक्ति, परिवार या सम्प्रदाय के नहीं होते। वे तो सभी के होते हैं । यही वात प्राचार्य भगवन् पर भी लागू होती है । वे सबके थे और सबके लिये थे।
प्राचार्य प्रवर भले ही शरीर से आज हमारे बीच नहीं हैं, परन्तु उनके उपदेश, उनके एक-एक शब्द आज भी हमें प्रेरणा देते हैं और हमारे लिये मार्गदर्शक हैं। उनका दिया हुआ सामायिक और स्वाध्याय का नारा आज भी हमारा पथ-प्रदर्शक है।
आइये, प्राचार्य भगवन् की प्रथम पुण्य तिथि पर हम यह संकल्प करें कि यदि हमें उनकी स्मृति को स्थायी रूप देना है तो हम उनके उपदेशों को, सामायिक और स्वाध्याय की प्रवृत्तियों को अपने अन्तर्ह दय में धारण कर उन्हें अपने जीवन में उतारें और अन्य लोगों को भी इस ओर प्रेरित करें। यही उस महापुरुष के प्रति हमारी सही श्रद्धांजलि होगी और यही उनकी स्थायी स्मृति भी।
-रावतों का बास, जोधपुर
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