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श्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
जीवन-दर्शन मानने का एकमात्र सन्देश पू० महाराज साहब ने ही दिया, ऐसा मैंने अनुभव किया । इमारतों में, संस्थानों में, मन्दिरों में, प्रतीकात्मक धर्म हो सकता है, परन्तु धर्म का वास्तविक मर्म, उसका सूक्ष्म दर्शन तो स्वाध्याय से ही सम्भव है और महाराज साहब ने हर किसी को केवल एक ही संदेश दिया 'स्वाध्याय' करो । जो स्वाध्याय करेगा वह धर्म को भी समझेगा - धर्म को समझकर ही जीवन में उतारा जा सकता है, धर्म का जीवन में उतरना ही मोक्ष है । बात छोटी लगती है, 'स्वाध्याय' शब्द भी छोटा व सहज बुद्धिगम्य है, लेकिन उसके भावार्थ की कितनी गहन पैठ है । यही महत्त्व की बात समझनी आवश्यक है । आज व्यवहार में अलग-अलग पंथ बनते जा रहे हैं, अलग-अलग संप्रदायें भी खड़ी हो रही हैं, परन्तु उनमें अलगता क्या है ? मोटे तौर पर बात तो सभी की वही है । ऊपरी व्यवहार में थोड़ा बहुत अन्तर मिल जाएगा, किसी पूजा-अर्चना की विधि में थोड़ा फरक हो जाएगा, किसी के तिलक छापे में थोड़ी विविधता देखी जा सकेगी, परन्तु धर्म की मूल बात में फर्क क्या है ? वह कोई समझ नहीं सकेगा ।
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महाराज साहब की सबसे बड़ी देन यही रही कि 'स्वाध्याय' जिसके लिये कहीं कोई दो मत नहीं हो सकते, उसमें कोई पंथ- परिवर्तन या सम्प्रदाय-भेद नहीं आ सकता- इसलिए कि वह धर्म का सही मर्म है, वही धर्म की पहचान मुमुक्षु को करा सकता है। बिना पहचान के, बिना समझ के, धर्म को कैसे ग्राह्य कर सकेगा - प्रात्मसात कर पाएगा। धर्म किसी केपसूल में भरकर पेट में नहीं उतारा जा सकता, धर्म किसी ताबीज में बांधकर शरीर से नहीं जोड़ा जा सकता, धर्म किसी तिलक - छापा की प्रकृति से अंकित नहीं किया जा सकता, धर्म तो अध्ययन-मनन की वस्तु है, जो स्वाध्याय से ही आत्मसात हो पाएगा ।
बड़े-बड़े ग्रंथों से कठिन से कठिन श्लोकों से धर्म को आम आदमी तक पहुँचाना कठिन है । धर्म को 'सरल व बुद्धिगम्य' जिस प्रकार किया जाय जिससे कि हर साधारण से साधारण बुद्धिमान भी उसे ग्राह्य कर सके । धर्म संस्थान उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, जितने कि धर्म को बुद्धिगम्य करना -- लोगों तक पहुँचाना, वही आज की आवश्यकता है । धर्म ही भटकी हुई मानवता को सही दिशा दे पाएगा, इसलिए धर्म को सुगम बनाना ही धर्म की सही सेवा है और वह सेवा 'स्वाध्याय' द्वारा सहज ही सम्भव है ।
अब उनकी इन तीनों ही बातों को समराइज अगर किया जाए तो बहुत ही सरल शब्दों में- धर्म और साधना को 'रिवाज' नहीं बनाएँ - उन्हें खरचीली या महँगी नहीं बनायें ताकि वह हर किसी के लिए सुलभ रहे। साधना को सुगम व सरल बनाएँ ।
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