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[ ४ ] जैनागमों में श्रावक-धर्म
स्वभाव च्युत अात्मा को जो पुनः स्वभाव-स्थित करे और गिरते हुए को स्वभाव में धारण करे। वैसे आचार-विचार को शास्त्रीय भाषा में धर्म कहते हैं। "एगे धम्मे" अर्थात् धारण करने के स्वभाव से वह एक है। स्थित-भेद, क्षेत्र-भेद और पात्र-भेद की अपेक्षा मूल में वह एक होकर भी, जैसे पानी विविध नाम और रूपों से पहचाना जाता है, वैसे धर्म भी अधिकारी-भेद और साधना-भेद से अनेक प्रकार का कहा जाता है। स्थानांग सूत्र के दूसरे स्थान में धर्म के श्रुतधर्म और चारित्र धर्म के रूप से दो प्रकार बतलाये हैं, फिर चारित्र धर्म को भी आगार धर्म और अणगार धर्म के भेद से विभक्त किया है। आगार का अर्थ है घर । घर के प्रपंचमय वातावरण में रहकर जो धर्म-साधना की जाय, उसे आगार धर्म और घर के सम्पूर्ण प्रारम्भ-परिग्रह से विरत होकर जो धर्म-साधना की जाय उसको अणगार धर्म कहा गया है। आगार धर्म का ही दूसरा नाम श्रावक धर्म है । त्यागी-श्रमणों की उपासना करने से गृहस्थ को श्रमणोपासक या उपासक भी कहा गया है।
दशाश्रुतस्कंध में सम्यग्दर्शनी गृहस्थ को व्रत-नियम के अभाव में दर्शन धावक कहा है। आचार्य कहते हैं कि जो व्रत-नियम रहित होकर भी जिन शासन की उन्नति के लिए सदा तत्पर रहता है और चतुर्विध संघ की भक्ति करता है, वह अविरत-सम्यग् दृष्टि भी प्रभावक श्रावक होता है, जैसा कि कहा है
जो अविरोवि संघे, भत्तितित्थुन्नई सया कुणई । अविरय-सम्मदिट्टी, पभावगो सावगो सोऽवि ।।
आगमों में प्रायः बारहव्रतधारी श्रावकों का ही निर्देश मिलता है। एक आदि व्रतधारी देशविरत होते हैं, पर आगमों में वैसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। उस समय में राज्य-शासन के चालक चेटक और उदायी जैसे राजा और सुबाहु जैसे राजकुमारों के भी द्वादश व्रतों के धारण का ही उल्लेख आता है। परन्तु पूर्वाचार्यों ने श्रावक धर्म की भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसी तीन श्रेणियाँ निर्धारित की हैं।
जघन्य श्रावक:
जघन्य श्रावक के लिए तीन बातें आवश्यक बतलाई हैं, जो निम्न प्रकार हैं :
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