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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
कारी के बिना यह सब सम्भव नहीं हो सकता, इसलिए मानना चाहिये कि श्रावक भी स्वाध्यायशील होते थे। तुंगिया नगरी के श्रावकों की जानकारी तो मुनियों को भी प्रभावित करने बाली थी । साधुजन गुरुजनों से क्रमिक वाचना लेकर शास्त्र ग्रहण किया करते और श्रावक जन श्रवण परम्परा से प्रसंग प्रसंग पर सुने हुए प्रवचनों से संकलन कर ग्रहण करते थे।
इस प्रकार प्रधानता से श्रावक समाज में अर्थागम और गौणरूप से सुत्तागम का ज्ञान भी किया जाता था, यह प्रायः निर्विवाद है। प्रतिक्रमण सूत्र में प्रतों की तरह ज्ञान के अतिचारों का उल्लेख है । यहाँ सूत्र, अर्थ और तदुमय रूप तीन आगम बताकर उनके १४ दोष बतलाये हैं, जो मूल सूत्र की अपेक्षा ही संगत हो सकते हैं । परम्परा की दृष्टि से मन्दिर मार्ग परम्परा और तेरहपंथ परम्परा में श्रावक के लिए सूत्र वाचन का निषेध था, परन्तु अब मुद्रण युग में शास्त्र इतने सुलभ हो गये हैं कि जैन ही नहीं, अजैन और विदेशीजनों को भी शास्त्र हस्तगत होने लगे, लोग काल अकाल की अपेक्षा किये बिना ही पढ़ने लगे। कई अजैन और विदेशी विद्वानों ने तो शास्त्र के अनुवाद भी कर डाले हैं। ऐसे समय में जैन गृहस्थों के लिए शास्त्र का पठन-पाठन विशेष आवश्यक हो गया है, जिससे वे अजैनों में सही स्थिति प्रस्तुत कर सकें।
मध्यकाल के श्रावक मुनिजनों से प्राज्ञा लेकर कुछ शास्त्रों का वाचन करते और अर्थागम से शास्त्रों के पठन-पाठन और श्रवण में बड़ी श्रद्धा रखते थे।
शास्त्र के अतिरिक्त थोकड़ों के द्वारा भी वे स्वाध्याय का लाभ लिया करते थे। परन्तु आज स्थिति ऐसी हो गई है कि व्याख्यान में भी शास्त्र श्रवण की रुचि वाले श्रोता ढूंढे भी नहीं मिल पाते । शिक्षित पीढ़ी को अन्य साहित्य पढ़ने का प्रेम है, पर धर्म शास्त्र का नाम आता है तो कोई कहता है महाराज भाषा समझ में नहीं आती, कोई बोलता है पढ़ें क्या, वर्णन में रोचकता नहीं है। इस प्रकार विदेशी विद्वान जहाँ प्राकृत का अध्ययन कर समझने का प्रयत्न करते हैं, वहाँ जैन गृहस्थ उस भाषा से ही अरुचि प्रदर्शित करें और पठन-पाठन के क्षेत्र में साधु साध्वियों को छोड़कर स्वयं उदासीन रहें, तो शास्त्रों का संरक्षण कैसे होगा? और भावी प्रजा में श्रुत का प्रचार-प्रसार किस बल पर चल सकेगा, विचार की बात है । वास्तव में यदि आपको जिनवाणी पर प्रीति और शासन रक्षा के लिए दर्द है तो स्वाध्याय को अधिक से अधिक अपनाइये। अर्थागम या शास्त्र पर के व्याख्यान ही पढ़िये, पर पढ़िये अवश्य । शास्त्रानुकूल आचार्यों के विचार और वैसे द्रव्यानुयोग तथा आध्यत्मिक ग्रन्थ भी पठनीय होते हैं। प्रतिदिन शास्त्र पठन की परिपाटी से समाजधर्म पुष्ट होता और शास्त्रीय ज्ञान की वृद्धि से श्रावक समाज धर्म साधन में रवाश्रयी बनता
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