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[ २ ] जैन आगमों में सामायिक
सामायिक का महत्त्व :
जैन धर्म में 'सामायिक' प्रतिक्रमण का बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान है । तीर्थंकर भगवान भी जब साधना-मार्ग में प्रवेश करते हैं तो सर्वप्रथम सामायिक चारित्र स्वीकार करते हैं । जैसे आकाश सम्पूर्ण चराचर वस्तुओं का आधार है, वैसे ही सामायिक चरण करणादि गुणों का आधार है, कहा भी है :
___ 'सामायिकं गुणना-माधारः खमिव सर्व भावानाम् ।
नहीं सामायिक हीना-श्चरणादिगुणान्विता येन ॥१॥'
बिना समत्व के संयम या तप के गुण टिक नहीं सकते । हिंसादि दोष सामायिक में सहज ही छोड़ दिये जाते हैं । अतः आत्मस्वरूप को पाने की इसे मुख्य सीढ़ी कह सकते हैं । भगवती सूत्र में स्पष्ट कहा है कि
'पाया खलु सामाइए, आया सामाइयस्स अट्ठे ।' अर्थात् प्रात्मा ही सामायिक है और प्रात्मा (आत्म-स्वरूप की प्राप्ति) ही सामायिक का प्रयोजन है। सामायिक शब्द का अर्थ :
सामायिक शब्द की रचना 'सम' और 'पाय' इन दो पदों से हुई है।
प्राकृत के 'सामाइय' पद के संस्कृत में अनेक रूप होते हैं । 'समाय' 'शमाय' और 'सामाय' तथा 'सम आय' से भी सामायिक रूप बनता है । फिर 'समये भवं' अथवा 'समये अयनं समायः' इस व्युत्पत्ति से भी सामायिक बनता है । सामायिक के निम्नलिखित अर्थ हो सकते हैं
(१) 'सम' याने राग द्वेष रहित मनःस्थिति और 'आय' का अर्थ लाभ-- अर्थात् सम भाव का जिससे लाभ हो, वह क्रिया ।
(२) 'शम' से समाय बनता है। 'शम' का अर्थ है-कषायों का उपशम ; जिसमें क्रोधादि कषायों का उपशम हो, वह शामायिक ।
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