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श्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
सिद्धि हो सकती है। बिना ज्ञान की क्रिया - बाल तप मात्र हो सकती है, साधना नहीं । जैनागमों में कहा है
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" नाणेण जाणइ भावं, दंसणेण य सद्द है । चरितेण निगिण्हाइ, तनेणं परिसुभई ।। "
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अर्थात् - ज्ञान के द्वारा जीवाजीवादि भावों को जानना, हेय और उपादेय पहचानना, दर्शन से तत्वातत्त्व यथार्थ श्रद्धान करना, चारित्र से आने वाले रागादि विकार और तज्जन्य कर्म दलिकों को रोकना एवं तपस्या से पूर्व संचित कर्मों को क्षय करना, यही संक्षेप में मुक्ति मार्ग या आत्मम-शुद्धि की साधना है ।
आत्मा अनन्त ज्ञान, श्रद्धा, शक्ति और आनन्द का भंडार होकर भी अल्पज्ञ, निर्बल, अशक्त और शोकाकुल एवं विश्वासहीन बना हुआ है । हमारा साध्य उसके ज्ञान, श्रद्धा और आनन्द गुरण को प्रकट करना है । अज्ञान एवं मोह के आवरण को दूर कर आत्मा के पूर्णज्ञान तथा वीतराग भाव को प्रकट करना है । इसके लिये अन्धकार मिटाने के लिये प्रकाश की तरह अज्ञान को ज्ञान से नष्ट करना होगा और वाह्य श्राभ्यान्तर चारित्र भाव से मोह को निर्मूल करना होगा । पूर्ण द्रष्टा सन्तों ने कहा – साधको ! अज्ञान और राग-द्व ेषादि विकार आत्मा सहज नहीं हैं । ये कर्म -संयोग से उत्पन्न पानी में मल और दाहकता की तरह विकार हैं । अग्नि और मिट्टी का संयोग मिलते ही जैसे पानी अपने शुद्ध रूप में आ जाता है, वैसे ही कर्म- संयोग के छूटने पर अज्ञान एवं राग-द्वेषादि विकार भी प्रात्मा से छूट जाते हैं, आत्मा अपने शुद्ध रूप में आ जाता है । इसका सीधा, सरल और अनुभूत मार्ग यह है कि पहले नवीन कर्म मल को रोका जाय, फिर संचित मल को क्षीण करने का साधन करें, क्योंकि जब तक नये दोष होते रहेंगे - कर्म - मल बढ़ता रहेगा और उस स्थिति में संचित
क्षीण करने की साधना सफल नहीं होगी । अतः आने वाले कर्म - मल को रोकने के लिये प्रथम हिंसा आदि पाप वृत्तियों से तन-मन और वाणी का संवरण रूप संयम किया जाय और फिर अनशन, स्वाध्याय, ध्यान आदि बाह्य और अन्तरंग तप किये जायं तो संचित कर्मों का क्षय सरलता से हो सकेगा ।
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श्राचार-साधना -- शास्त्र में चारित्र - साधना के अधिकारी भेद से साधना के दो प्रकार प्रस्तुत किये गये हैं - १. देशविरति साधना और २. सर्वविरति साधना । प्रथम प्रकार की साधना आरम्भ परिग्रह वाले गृहस्थ की होती है । सम्पूर्ण हिंसादि पापों के त्याग की असमर्थ दशा में गृहस्थ हिंसा आदि पापों का
शिक त्याग करता है । मर्यादाशील जीवन की साधना करते हुये भी पूर्ण हिंसा आदि पापों का त्याग करना वह इष्ट मानता है, पर सांसारिक विक्षेप के कारण वैसा कर नहीं पाता । इसे वह अपनी कमजोरी मानता है । अर्थ व काम का सेवन करते हुये भी वह जीवन में धर्म को प्रमुख समझकर चलता है । जहाँ
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