________________
प्राचार्य श्री के प्रेरक पद
मेरे अन्तर भया प्रकाश
[तर्ज-दोरो जैन धर्म को मारग....] मेरे अन्तर भया प्रकाश, नहीं अब मुझे किसी की आश ।।टेर॥ काल अनन्त भूला भव-वन में, बंधा मोह की पाश ।
काम, क्रोध, मद, लोभ भाव से, बना जगत का दास ।।मेरे।।१।। तन धन परिजन सब ही पर हैं, पर की प्राश-निराश ।
पुद्गल को अपना कर मैंने, किया स्वत्व का नाश ।।मेरे।।२।। रोग शोक नहिं मुझको देते, जरा मात्र भी त्रास ।
सदा शान्तिमय मैं हूँ मेरा, अचल रूप है खास ।।मेरे।।३।। इस जग की ममता ने मुझको, डाला गर्भावास ।
अस्थि-मांस मय अशुचि देह में, मेरा हुआ निवास ।मेरे।।४।। ममता से संताप उठाया, आज हुआ विश्वास ।
भेद ज्ञान की पैनी धार से, काट दिया वह पाश ।।मेरे।।५।। मोह मिथ्यात्व की गांठ गले तब, होवे ज्ञान प्रकाश । 'गजेन्द्र' देखे अलख रूप को, फिर न किसी की आश ।।मेरे।।६।।
( २ )
प्रात्म-स्वरूप [तर्ज-दोरो जैन धर्म को मारग....] मैं हूँ उस नगरी का भूप, जहाँ नहीं होती छाया-धूप ॥टेर।। तारामण्डल की न गति है, जहाँ न पहुँचे सूर ।
जगमग ज्योति सदा जगती है, दीसे यह जग कूप ।।१।।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org