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• व्यक्तित्व एवं कृतित्व
समता भाव के कारण आचार्य श्री सच्चे श्रमण थे, तप के कारण तपस्वी थे, ज्ञान के कारण मुनि थे, गुणों से साधु थे । आचार्य श्री सचमुच जैन-जगत के आलोकमान भास्कर, श्रमण संस्कृति के महा कल्पवृक्ष, महामनीषी प्रज्ञा-पुरुष, इतिहास-पुरुष, युगांतकारी विरल विभूति सिद्ध पुरुष, अहिंसा, दया और करुणा के सागर, ज्ञान के शिखर, साधना के शृंग, युग द्रष्टा और युगस्रष्टा थे।
-सी-७, भागीरथ कॉलोनी, चौमूं हाउस, जयपुर-१
गजेन्द्र प्रवचन-मुक्ता
• सर्वजनहिताय–सबके हित के लिये जो काम किया जाय वही अहिंसा है। • यदि अहिंसा को देश में बढ़ावा देना है तो उसके लिये संयम जरूरी होगा। • संयम में रही हुई अात्मा मित्र और असंयम में रही हुई आत्मा शत्रु है । • सिद्धि में रुकावट डालने वाला आलस्य है, जो मानव का परम शत्रु है। • आनन्द भौतिक वस्तुओं के प्रति राग में नहीं, उनके त्याग में है। • कामना घटाई नहीं कि अर्थ की गुलामी से छुटकारा मिला नहीं। • तपस्वी वह कहलाता है जिसके मन में समता हो। • दान तब तक दान नहीं है जब तक कि उसके ऊपर से मम भाव विसर्जित
न हो। • धर्म की साधना में कुल का सम्बन्ध नहीं, मन का सम्बन्ध है। • किसी के पास धन नहीं है, पर धर्म है तो वह परिवार सुखी रह सकता है। • मन, वचन और काया में शुभ योग की प्रवृत्ति होना पुण्य है। • भावहीन क्रिया फल प्रदान नहीं करती। भाव क्रिया का प्राण है। . श्रावक-समाज के विवेक से ही साधु-साध्वियों का संयम निर्मल रह सकता है। • मरण-सुधार जीवन-सुधार है और जीवन-सुधार ही मरण-सुधार है ।
__ -प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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