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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • २२६ समर्पण भाव से धर्म के, समाज के बिस्तार में, निर्माण में अपना हाथ बंटाने लगीं, किन्तु क्यों ? स्पष्ट था प्राचार्य प्रवर की प्रेरणा से । दूसरी ओर समाज में नारियों का वह वर्ग था जो धर्म की दिशा में क्रियाशील तो था किन्तु एक निश्चित उद्देश्य की अनुपस्थिति में, क्योंकि उनमें ज्ञान का सर्वथा अभाव था। ज्ञान के अभाव में उस क्रिया के निरर्थक होने से उसका अपेक्षित फल न उन्हें मिल पा रहा था, न समाज को। वे जो करती थीं उसे जान नहीं पाती थीं। अंधविश्वासों से ओतप्रोत होकर वे धर्म की पुरातन परम्परा का मात्र अंधानुकरण करती थीं, फलत: उसके लाभ की प्राप्ति से भी वंचित रह जाती थीं। धर्मपरायण बनने की होड़ में सम्मिलित होकर वे माला फेरती थीं किन्तु एकाग्रचित्त होकर इष्ट का स्मरण करने नहीं वरन् यह दिखाने के लिए कि हम धार्मिक हैं। उनके विवेक चक्षुषों पर अज्ञान की पट्टी बंध कर उन्हें विवेकहीन बना रही थी। वास्तव में वे अपनी, अपने परिवार की सुखशांति हेतु धर्म से डरी हुई होती हैं । क्योंकि बाल्यकाल से ही यह विचार उन्हें संस्कारों के साथ जन्मघुट्टी के रूप में दे दिया जाता है और इस प्रकार दिया जाता है कि वे अनुकरण की आदी हो जाती हैं । उसके बारे में सोचने-समझने या कुछ जानने की स्वतन्त्रता या तो उन्हें दी नहीं जाती या फिर वे इसे अपनी क्षमता से परे जान कर स्वयं त्याग देती हैं। उनका ज्ञान हित व अहित के पहलू तक सिमट जाता है कि यदि हम धर्म नहीं करेंगे तो हमें इसके दुष्परिणाम भुगतने होंगे और बस यह कल्पना मात्र धर्म को उनके जीवन की गहराइयों तक का स्पर्श करने से रोक देती है और मात्र उस भावी अनिष्ट से बचने के लिए वे सामायिक का जामा पहन कर मुँहपत्ती को कवच मान लेती हैं। उसके पुनीत उद्देश्य व मूल स्वरूप की गहराई तक पहुँचने का अवसर उनसे उनकी अज्ञानता का तिमिर हर लेता है। समाज में ऐसी स्त्रियों की तादाद एक बड़ी मात्रा में थी अतः उनकी चेतना के अभाव में समाज के विकास की कल्पना भी निरर्थक थी । अतः आचार्य श्री ने अपनी प्रेरणा की मशाल से ऐसी नारियों में ज्ञान की ज्योति प्रज्वलित की। उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से उन्हें धर्म का तात्पर्य बताया। धर्म क्या है ? क्यों आवश्यक है ? माला का उद्देश्य क्या है ? सामायिक की विधि क्या हो ? इत्यादि अनेकानेक ऐसे अव्यक्त प्रश्न थे जिनका समाधान उन्होंने अत्यन्त सहज रूप में किया और निश्चय ही इसका सर्वाधिक प्रभाव उन रूढ़िवादी नारियों पर ही पड़ा। उनकी मान्यताएँ बदल गईं और धर्म जीवन्त हो उठा। इस प्रकार उन्होंने स्त्रियों में ज्ञान व क्रिया दोनों को समाविष्ट करने का यत्न किया किन्तु इसके मूल में कहीं समाज के उत्थान का उद्देश्य ही निहित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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