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• प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा.
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उन्होंने उक्त दो पंक्तियों में गागर में सागर भर दिया है । यदि सोनेचांदी से ही किसी की पूजा होती तब तो सोने-चांदी व हीरे के खानों की पूजा पहले होती। इस सोने-चांदी से शरीर का ऊपरी सौन्दर्य भले ही कुछ बढ़ जाय मगर अंतःकरण की पवित्रता का ह्रास होने की संभावना रहती है, दिखावे की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिल सकता है तथा अंहकार की पूंछ लम्बी होने लगती है । त्याग, संयम और सादगी में जो सुन्दरता, पवित्रता एवं सात्विकता है वह भोगों में कहाँ ? जिस रूप को देखकर पाप कांपता है और धर्म प्रसन्न होता है वही सच्चा रूप एवं सौन्दर्य है। प्राचार्य जवाहरलालजी म. सा. ने भी फरमाया है
"पतिव्रता फाटा लता, नहीं गला में पोत । भरी सभा में ऐसी दीपे, हीरक की सी जोत ॥"
जगत-वन्दनीय बनें-प्राचार्य श्री को मातृ शक्ति से देश, धर्म और संघ सुधार की भी बड़ी आशायें रहीं । वे मानते थे कि भौतिकता के इस चकाचौंध पूर्ण युग में जगत् जननी माता के द्वारा ही भावी पीढ़ी को मार्गदर्शन मिल सकता है, पुरुषों को विलासिता में जाने से रोका जा सकता है और कुव्यसनों से समाज को मुक्त रखा जा सकता है। उन्हीं के शब्दों में
"देवी अब यह भूषण धारो, घर संतति को शीघ्र सुधारो, सर्वस्व देय मिटावो, आज जगत् के मर्म को जी। धारिणी शोभा सी बन जाओ, वीर वंश को फिर शोभाओ, 'हस्ती उन्नत कर दो, देश, धर्म अरु संघ को जी।
अतएव आचार्य भगवन् ने ज्ञान-पथ की पथिक, दर्शन की धारक, सामायिक की साधक, तप की आराधक, शील की चूंदड़ी प्रोढ़, संयम का पैबंद, दया व दान की जड़त लगी जिस भारतीय नारी की कल्पना की है, वह युग-युगों तक हम बहनों के जीवन का आदर्श बनकर हमारा पथ-प्रदर्शन करती रहेगी।
-परियोजना निदेशक, जिला महिला विकास अभिकरण, जोधपुर
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