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________________ • प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. • २२३ भाई-बहिन तप के सही स्वरूप को और उसकी सही महिमा को नहीं समझते हैं। मेंहदी क्या रंग लायेगी तप के रंग के सामने ? रंग तो यह तपश्चर्या अधिक लायेगी । तप के साथ अगर भजन किया, प्रभु-स्मरण किया, स्वाध्याय, चिंतन किया तो वही सबसे ऊँचा रंग है। तपस्या के नाम पर तीन बजे उठकर गीत गाया जावे और उसमें भी प्रभु-स्मरण के साथ दादा, परदादा, बेटे-पोते का नाम लिया जाये तो वह तप में विकृति है, तप का विकार है। सच्चे तप की पाराधक-तपश्चर्या करने वाली माताएँ शास्त्र-श्रवण, स्वाध्याय और स्मृति को लेकर आगे बढ़ेंगी तो यह तप उनकी प्रात्म-समाधि का कारण बनेगा, मानसिक शांति और कल्याण का हेतु बनेगा तथा विश्व में शांति स्थापना का साधन बनेगा। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावत्य और स्वाध्याय ये चारों चौकीदार तपस्या के साथ रहेंगे तब तपश्चर्या का तेज और दिव्य ज्योति कभी खत्म नहीं होगी। तपश्चर्या करने के पश्चात् भी बात-बात में क्रोध आता है तब कर्मों का भार अधिक हल्का नहीं होगा। तपश्चर्या का मूल लक्ष्य है कर्म की निर्जरा, पूर्व संचित कर्मों को नष्ट करना । अतएव कर्म के संचित कचरे को जलाने के लिये, एकान्त कर्म-निर्जरा के लिये कर्म काटने हेतु ही तप करना चाहिये। मात्र अन्न छोड़ना ही तप नहीं। अन्न छोड़ने की तरह, वस्त्र कम करना, इच्छाओं को कम करना, संग्रह-प्रवृत्ति कम करना, कषायों को कम करना भी तप है। "सदाचार सादापन धारो। ज्ञान ध्यान से तप सिणगारो॥" इस तरह तप के वास्तिविक स्वरूप का दिग्दर्शन कराकर आचार्य श्री बहनों को शुद्ध तप करने को प्रेरित कर रूढ़ियों से ऊपर उठने की प्रेरणा देते जिसका प्रभाव हमें प्रत्यक्ष प्राज दिखायी दे रहा है। तपश्चर्या में दिखावापन धीरे-धीरे कम हो रहा है। तप के साथ दान-सोने में सुहागा-प्राचार्य श्री तप के साथ दान देने को सोने में सुहागा की उपमा देते थे। तप से शरीर की ममता कम होती है और दान से धन की ममता कम होती है और ममत्व कम करना ही तपश्चर्या का लक्ष्य है । तप के नाम से खाने-पीने, ढोल-ढमाके में जो खर्च किया जाता है वह पैसा सात्विक दान में लगाना चाहिये । हर व्यक्ति तप-त्याग के साथ शुभ कार्यों में अपने द्रव्य का सही वितरण करता रहे तो "एक-एक कण करतेकरते मण" के रूप में पर्याप्त धनराशि बन जाती है जिसका उपयोग दीनदुःखियों की सेवा, स्वधर्मी भाई की सेवा, संध की सेवा में किया जा सकता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003843
Book TitleJinvani Special issue on Acharya Hastimalji Vyaktitva evam Krutitva Visheshank 1992
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat, Shanta Bhanavat
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1992
Total Pages378
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size7 MB
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