________________
2 वीतरागता के विशिष्ट उपासक
0 श्री सम्पतराज डोसी
समता के साधक एवं वीतरागता के उपासक :
स्वर्गीय आचार्य प्रवर उन विरले संत-साधकों में से थे जो इस रहस्य को भली भांति मात्र जानते अथवा मानते ही नहीं पर जिन्होंने आचरण एवं अनुभूति के स्तर पर यह सिद्ध किया कि अहिंसा, अपरिग्रह एवं अनेकांत अथवा सारे धर्म का मूल आधार या जड़ समता एवं सम्यग्दर्शन है और धर्म अथवा साधना की पूर्णता वीतरागता प्राप्त होने पर ही हो सकती है । समता अथवा सम्यग्दर्शन का भी ऊपरी व व्यावहारिक अर्थ सुदेव-सुगुरु-सुधर्म पर श्रद्धा, विश्वास या आस्था रखना होता है पर गूढ़ एवं निश्चय-परक अर्थ तो स्व-पर का अर्थात् जीव-अजीव का अथवा आत्मा एवं देह के भेद-विज्ञान की अनुभूति और वह भी आगे बढ़ कर आत्मा के स्तर पर होने पर ही होता है । मुंह से तो सामान्य व्यक्ति भी कह सकता है कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है। शरीर नाशवान है और प्रात्मा अजर-अमर है । पर जब तक मरने का भय मिटता नहीं तब तक आत्मा को अजर-अमर मानने या कहने का विशेय अर्थ नहीं रह जाता। भेद-विज्ञानी एवं मोह के त्यागी :
दस वर्ष जैसी अल्पायु में संयम-पथ को ग्रहण करना, सोलह वर्ष की आयु में आचार्य पद के गुणों को धारण कर लेना आदि इस महापुरुष के पूर्व जन्म में की हुई साधना के संस्कारों का ही फल समझा जा सकता है । पूर्ण युवा वय में 'मेरे अन्तर भया प्रकाश' एवं 'मैं हूँ उस नगरी का भूप' जैसी प्रात्म-स्पर्शी रचनाएँ उनके भेद-विज्ञान की ही स्पष्ट झलक देती हैं । संघ एवं सम्प्रदाय में रहते हुए भी वे असाम्प्रदायिक भावना वाले ही थे। इसी के फल-स्वरूप मात्र स्थानकवासी परम्पराओं के ही नहीं बल्कि अन्य परम्पराओं के अनुयायियों के हृदय में भी आपके प्रति श्रद्धा एवं भक्ति विद्यमान थी।
जैन धर्म का विशेष ज्ञान रखने वाले विद्वान् जानते हैं कि हिंसा, झूठ, चोरी आदि सतरह पापों का मूल मात्र एक अठारहवां पाप मिथ्या दर्शन शल्य है। यह पाप मोह कर्म की मिथ्यात्व मोहनीय नाम प्रकृति के फल-स्वरूप
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org