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प्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. ने जीवन की इसी गुणवत्ता को जन-जन तक पहुँचाया है कि हम केवल बहिर्मुखी न रहें वरन् अपने अन्तर में झांक कर देखें तो एक नया सौन्दर्य, नया रूप और नया जीवन हमें दिखाई देगा - जो मोह, माया, लोभ, राग, द्व ेष, कलह, मैथुन और परिग्रह से परे जीवन के प्रति हमें एक नई दृष्टि देगा | अपने प्रवचनों को आचार्य श्री ने सुबोध और सरल बनाने के लिए 'आज के परिदृश्य' को आधार बनाया ।
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
आपने यदि उनके 'प्रार्थना - प्रवचन' पढ़ े हों तो आपको लगेगा कि उनमें हमें आत्म-बोध मिलता है और जीवन को समझने की एक नयी दृष्टि.......।
आचार्य श्री फरमाते हैं- “आत्मोपलब्धि की तीव्र अभिलाषा श्रात्मशोधन के लिए प्रेरणा जाग्रत करती है ।" किसी ने ज्ञान के द्वारा आत्मशोधन की आवश्यकता प्रतिपादित की, किसी ने कर्मयोग की अनिवार्यता बतलाई, तो किसी ने भक्ति के सरल मार्ग के अवलम्बन की वकालात की। मगर जैन धर्म किसी भी क्षेत्र में एकान्तवाद को प्रश्रय नहीं देता.......जैन धर्म के अनुसार मार्ग एक ही है, पर उसके अनेक अंग हैं - अत: उसमें संकीर्णता नहीं विशालता है और प्रत्येक साधक अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार उस पर चल सकता है......... । प्रभु की प्रार्थना भी आत्म-शुद्धि की पद्धति का अंग है.. ..और प्रार्थना
प्राण भक्ति है । जब साधक के अन्तःकरण में भक्ति का तीव्र उद्रेक होता है, तब अनायास ही जिह्वा प्रार्थना की भाषा का उच्चारण करने लगती है, इस प्रकार अन्तःकरण से उद्भूत प्रार्थना ही सच्ची प्रार्थना है ।
किन्तु हमें किसकी प्रार्थना करना चाहिये - इसका उत्तर देते हुए आचार्य श्री ने कहा है कि निश्चय ही हमें कृतकृत्य और वीतराग देव की और उनके चरण-चिह्नों पर चलने वाले एवं उस पथ के कितने ही पड़ाव पार कर चुकने वाले साधकों, गुरुत्रों की ही प्रार्थना करना चाहिए। देव का पहला लक्षण वीतरागता बताया गया है - " अरिहन्तो मह देवो । दसट्ट दोसा न जस्स सो देवो...... ../"
किन्तु हम उन पत्थरों की पूजा करते हैं - इस आशा में कि हमें कुछ प्राप्त हो जाय । कुछ भौतिक उपलब्धियाँ मिल जाय । किन्तु इससे हमें श्रात्मशान्ति प्राप्त नहीं होगी ।
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तीर्थंकर 'नमो सिद्धाणं' कह कर दीक्षा अंगीकार करते हैं । प्राचार्य हेमचन्द्र ने कहा है- " वीतराग स्मरन् योगी, वीतरागत्व मापनुयात्" अर्थात् जो योगी ध्यानी वीतराग का स्मरण करता है, चिन्तन करता है वह स्वयं वीतराग बन जाता है ।
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